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8 चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन ॐ ३६३ ॐ
है।" इसीलिए ‘भगवती आराधना' में कहा गया है-चारित्र की आराधना करने से दर्शन, ज्ञान और तप तीनों आराधनाएँ भी हो जाती हैं।
विभिन्न पहलुओं से सम्यक्चारित्र-स्वरूप 'उत्तराध्ययनसूत्र वृत्ति' में दो प्रकार से चारित्र का निर्वचन किया गया है(१) जो अष्टविध कर्मों को चरता है, भक्षण करता है-खपाता है, वह चारित्र है। (२) “चयरित्तकरं चारित्तं।" अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मों के चय (संचय) को द्वादशविध तप से जो रिक्त (खाली) करता है, वह चारित्र है।२ 'तत्त्वानुशासन' के अनुसारमन-वचन-काय से कृत-कारित-अनुमोदन द्वारा पापरूप क्रियाओं का त्याग सम्यक्चारित्र है। यह निर्जरारूप चारित्र है और नवीन कर्मों के आस्रव को रोकना संवररूप चारित्र है। _ 'भगवती आराधना' में चारित्र का निर्वचन किया गया है-सत्पुरुषों द्वारा जिसका आचरण किया जाता है, वह चारित्र है, उसके सम्मायिंकादि भेद हैं। अथवा “जिससे आत्म-हित की प्राप्ति करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, वह चारित्र है।" 'सर्वार्थसिद्धि' में इसका फलितार्थ दिया गया है-“जो सम्यग्ज्ञानवान् व्यक्ति संसार के कारणों से निवृत्ति के लिए उद्यत है, उसके द्वारा कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत बाह्य और अन्तरंग क्रियाओं से उपरत-निवृत्त होना चारित्र है।''३ 'द्रव्यसंग्रह' में चारित्र का लक्षण दिया गया है-“अशुभ से
१. (क) चारित्रमन्ते गृह्यन्ते मोक्षप्राप्तेः साक्षात्कारणमितिज्ञापनार्थम्।
-सर्वार्थसिद्धि ९/१८/४३६/४ (ख) तं चैव गुणविसुद्धं, जिणसम्मत्तं सुमुक्खठाणाय।
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्तं चरणचारित्तं॥८॥ सम्मत-चरण-सुद्धा संजमचरणस्स जइ व सुपसिद्धा।
णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं॥९॥ -चारित्रपाहुड, मू. ८-९ (ग) चारित्रं दर्शन-ज्ञानविकलं नार्थकृत् मतम्। 'पतनायैव तद्धि स्यात् अन्धस्यैव विवल्गितम्॥
-महापुराण २४/१२२ (घ) अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं सव्वं।
आराहणाए सेसस्स चारित्ताराहणा भज्जा। -भगवती आराधना मू. ८/४१ २. चेतसा वचसा तन्वा कृतानुमत-कारितैः पापक्रियाणां यस्त्यागः सच्चारित्रमुवन्ति तत्।
-तत्त्वानुशासन (नागसेनसूरि) २७ ३. (क) चरति अष्टविधकर्म भक्षयति = क्षपयति इति चारित्रम्।
(ख) उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. ३२ बृहद्वृत्ति (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. ४८१ .