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चारित्र : संवर, निर्जरा और मोक्ष का साधन
मोक्ष का साक्षात्कारण
चारित्र मुमुक्षु-जीवन का मूलाधार है। इसके बिना न तो साधक सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, न ही कर्मलिप्त आत्मा की शुद्धि कर सकता है और न नये आते हुए कर्मों (आम्रवों) का निरोध कर सकता है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान सम्यक नहीं हो सकता और ज्ञान सम्यक हो, तभी चारित्रगुण सम्यक्चारित्र हो सकता है। इसका तात्पर्य यह है सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ये दोनों सम्यक्चारित्ररूपी वृक्ष के बीज और मूल हैं। जैसे बीज़ और मूल के बिना कोई भी वृक्ष पनप नहीं सकता, वैसे ही सम्यग्दर्शनरूपी बीज और सम्यग्ज्ञानरूपी मूल के बिना सम्यक्चारित्ररूपी तरु पनप नहीं सकता, उसका अस्तित्व भी इन दोनों के बिना रह नहीं सकता। दूसरी दृष्टि से देखें तो सम्यक्चारित्र अपने साथ इन दोनों को लेकर चलता है। इसलिए ‘सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-“चारित्र मोक्ष का साक्षात्कारण है, इसी तथ्य को बताने के लिए शास्त्रों में तथा 'तत्त्वार्थसूत्र' में चारित्र का ग्रहण अन्त में किया है। 'चारित्रपाहुड' में तो सम्यग्दर्शनादि तीनों को चारित्र (चरण) रूप बताते हुए कहा गया है-“प्रथम सम्यक्त्वचरण चारित्र मोक्ष स्थान के लिये है, अतः जो ज्ञानी अमूढदृष्टि होकर सम्यक्त्वतरण से शुद्ध होता है, वह संयमाचरण से विशुद्ध होकर शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है।'' 'महापुराण' के अनुसार-“सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान से रहित चारित्र कुछ भी कर्ममुक्तिरूप कार्य के लिए उपयोगी नहीं होता, अपितु जिस प्रकार अन्धे पुरुष का दौड़ना उसके पतन का कारण होता है, वैसे ही वह (कोरा चारित्र) उसके पतन (नरकादि गतियों में भ्रमण) का कारण होता है क्योंकि उस चारित्र में चारित्र का अहंकार आ जाता
१. नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुँति चरणगुणा।
अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं॥
-उत्तराध्ययन, अ. २८, गा. ३०