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* ३६० * कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
सहिष्णुता का विकास होने पर
सहिष्णुता की शक्ति का विकास होने पर ही अनुशासन, परस्पर विनय, वात्सल्य, सहयोग और सेवाधर्म के पालन करने का अवसर आता है। तभी सम्यग्दृष्टिपूर्वक संवर और निर्जराधर्म साधक-जीवन में आ पाता है। सहिष्णुता का विकास एक प्रकार से आत्मिक-शक्ति का विकास है। इसी शक्ति के सहारे दूसरों की कमियों को, विशेषताओं को, क्षमा आदि गुणों को सहा जा सकता है। सहिष्णुता का विकास होने पर किसी की अपने प्रति प्रतिकूल या अमनोज्ञ बात सुनकर व्यक्ति तत्काल उत्तेजित नहीं होता। वह सोचेगा कि इसने मुझ पर आवेश-रोषवश जो भी कहा है, वह यदि तथ्ययुक्त है तो मुझे स्वीकार करने में और उसके कथन को बुरा न मानकर अपने लिए हितकर मानकर सहन करना चाहिए। यदि दूसरे का आक्षेपयुक्त कथन अयथार्थ है, मिथ्या दोषारोपण है तो उसका प्रतिवाद या उस व्यक्ति पर क्रोध करने से कोई लाभ नहीं होता। शान्तिपूर्वक सहन करने से व्यक्ति की सहन-शक्ति बढ़ती है, क्षमा करने से वह व्यक्ति सत्य समझने पर स्वतः झुक जाता है। सहिष्णु बनकर सिद्धान्त पर अडिग रहने का सुपरिणाम . महात्मा गांधी जी जब अहमदाबाद के कोचरब स्थित आश्रम में रहते थे, तब दूधाभाई नामक एक हरिजन परिवार स्वेच्छा से रहने के लिए वहाँ आ गया। कस्तूरबा के विरोध के बावजूद गांधी जी ने उसे रख लिया। इस पर आश्रम को अर्थ-सहायता देने वाले कतिपय सेठ बौखला उठे। उन्होंने गांधी जी से प्रत्यक्ष और परोक्ष में आश्रम में ढेढ़, भंगी को रखने का सख्त विरोध किया और कहा-“अगर आप इस परिवार को रखेंगे, तो हम लोग आश्रम को अर्थ-सहयोग नहीं देंगे।" गांधी जी ने कहा-"हरिजन या कोई भी आश्रम के नियमानुसार स्वतः रहना चाहे तो मैं उसे धक्का नहीं दे सकता। धर्म-पालन का सबको अधिकार है। इस बात पर अर्थ-सहयोगी कई धनिकों ने आश्रम को सहायता देना बंद कर दिया। मगर गांधी जी इसे प्रभु की इच्छा मानकर कष्ट सहने के लिए कटिबद्ध हो गए। गांधी जी की कष्ट-सहिष्णुता और सिद्धान्त-निष्ठा देखकर दूसरे ही दिन एक अज्ञात व्यक्ति सुबह-सुबह आकर आश्रम चलाने के लिए चुपचाप तेरह हजार के नोट थमाकर चला गया। यह था कष्ट-सहिष्णुता का सुपरिणाम ! कष्ट-सहिष्णुता का विलक्षण प्रभाव
गांधी जी अफ्रीका में रहते थे, तब हिन्दुस्तानियों के खिलाफ वहाँ की गोरी
१. 'आत्मकथा' (महात्मा गांधी जी) से सारांश ग्रहण