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ॐ परीषह-विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय ॐ ३५९ ॐ
पारिवारिक जीवन में सहिष्णुता का आदर्श जापान के एक वयोवृद्ध मंत्री थे ‘भो-चो-शान'। उनके परिवार में उनके बेटे, पोते, पड़पोते आदि कुल मिलाकर सौ से अधिक सदस्य थे। वे सब एक ही स्थान में एक साथ रहते थे। उनमें कभी परस्पर तू-तू मैं-मैं, चखचख, वैमनस्य अथवा कलह नहीं होता था। जापान के तत्कालीन सम्राट मिकाडो के कान में यह बात पहुँची। वह आश्चर्यान्वित होकर इसका रहस्य जानने के लिए एक दिन वृद्ध मंत्री के घर जा पहुँचा। वृद्ध मंत्री ने नमस्कार करके कुशलक्षेम पूछने के बाद आगमन का कारण पूछ। राजा मिकाडो ने पूछा-“मंत्रिवर ! आपके इतने बड़े परिवार में कभी संघर्ष नहीं होता, यह सुनकर मैं इसका रहस्य जानने के लिए आया हूँ कि इसका कारण क्या है?" ___ यह सुनकर वृद्ध मंत्री ने इशारे से अपने पौत्र को दवात, कलम, कागज लाने के लिए कहा-जब वह ये सब चीजें लेकर आया तो वृद्ध मंत्री ने अपने काँपते हाथों से कागज पर एकमात्र ‘सहनशीलता' शब्द को सौ बार लिखकर राजा मिकाडो के सामने वह कागज प्रस्तुत कर दिया और कहा-“मेरे इतने बड़े परिवार . में कभी किसी बात पर संघर्ष न होने का रहस्य यही है।"
. वर्तमान वैचारिक आचारिक सहिष्णुता का प्रायः अभाव - आजकल गृहस्थों के जीवन की क्या बात करें, बड़े-बड़े साधकों में परस्पर अहंकार टकराने के कारण, साम्प्रदायिक द्वेष, ईर्ष्या आदि तथा तेजोद्वेष के कारण सहिष्णुता का, वैचारिक-आचारिक सहनशीलता का एक प्रकार से दुष्काल आ गया है। सहिष्णुता व परीषह सहिष्णुता के अभाव में छोटी-छोटी बात पर ठन जाती है, अपनी व अपने सम्प्रदाय की उत्कष्टता और क्रियापात्रता की डींग हाँककर दूसरे सम्प्रदाय को या दूसरे सम्प्रदाय के गुणी साधु-साध्वी को हिकारतभरी दृष्टि से देखा जाता है, सहनशीलता न होने से अनेकान्तवाद की, समता की या परीषहसहिष्णुता अथवा कषाय-विजय की बड़ी-बड़ी बातें केवल पोथी के बैंगन ही सिद्ध होती हैं। पर-परिवाद और खिंखिणी (निन्दा) तो पापकर्मबन्धक है, उसे तो अर.हिष्णु ही करता है। ऐसे गृहस्थ और साधु असहिष्णु होने के कारण जरा-जरा-सी बात में उत्तेजित हो जाते हैं, वे फिर आचार्य, गुरु या बुजुर्ग या बड़े साधुओं के अनुशासन में नहीं रहना चाहते हैं। ऐसे साधु आखिरकार स्वच्छन्दाचारी बन जाते हैं। वे फिर समूह में रहने से सहिष्णु बनकर सत्य या हितकर बातों को मानने से कतराते हैं। जबकि शास्त्र बार-बार कहते हैं-“अणुसासिओ न कुप्पेज्जा।'"-साधक अनुशासित किये जाने पर कुपित न हों।