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________________ ॐ ३५८ कर्मविज्ञान : भाग ६ ® सच्चे धार्मिक की पहचान खरतरगच्छीय जैन साध्वी श्री विचक्षणश्री जी कैंसर जैसे भयंकर रोग से पीड़ित थीं। अत्यन्त वेदना हो रही थी। परन्तु उन्होंने कभी किसी के सामने प्रगट नहीं किया कि मुझे बहुत कष्ट हो रहा है, बल्कि पूछने पर वे यों ही कहती“आनन्द ही आनन्द है। कर्मों की निर्जरा करने का सुन्दर अवसर आया है।" जबकि अधार्मिक या तथाकथित क्रियाकाण्ड-परायण व धार्मिकता का दावा करने वाला व्यक्ति उपर्युक्त कष्टों के समय हायतोबा मचाने और दूसरों को कोसने लगता है। रोगादि का कष्ट तो उसे बरबस सहना ही पड़ता है, किन्तु वह लाचारी से, हाय-हाय करते, रोते-बिलखते सहता है। शान्तभाव से उपर्युक्त दुःखों को सहने की शक्ति उसी में आती है, जिसे शरीर और आत्मा की भिन्नता का भेदविज्ञान हो जाता है। वह यही कहता है-“रोगादि कष्ट शरीर को होता है, मुझे नहीं। मेरी आत्मा में शान्ति है।" सच्चा धार्मिक सहनशील होता है। वह स्वयं कष्ट सहकर दूसरों के कष्ट को कम करने की कोशिश करता है, दूसरों को सुखी देखकर उसे ईर्ष्या नहीं होती, बल्कि इस प्रकार के कष्ट सहने में आत्मौपम्यभाव की आत्म-धर्म की प्रेरणा होती है; किसी के प्रति एहसान के भाव नहीं होते। न ही कष्ट-सहिष्णु धार्मिक में छोटे-बड़े का भेदभावमूलक प्रश्न बाधक बनता है। बड़े छोटों को और छोटे बड़ों को सहन करते हैं। सामूहिक जीवन में सहिष्णुता आवश्यक ___ पारिवारिक, सामाजिक तथा धर्मसंघीय, सम्प्रदायीय अथवा सामूहिक जीवन में तो सहिष्णुता के बिना काम नहीं चलता। इनमें परस्पर सहिष्णुता बहुत ही आवश्यक है। इनमें परस्पर सहिष्णुता न हो तो मैत्री का निर्वाह हो ही नहीं सकता। परिवार, समाज, राष्ट्र आदि की वृत्ति, रुचि और प्रवृत्तियों में भिन्नता होनी स्वाभाविक है। सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न सच्चा धार्मिक संघ या समूह में एक-दूसरे के प्रति विघटन पैदा करने, दूसरे को नीचा दिखाने, निन्दा या बदनामी करने की द्वेष-घृणा भावना न रखकर सहिष्णुतापूर्वक जीता है। एक-दूसरे की खूबियों और खामियों के प्रति सहिष्णुता हो तो दोष, दुर्बलता दूर हो सकने की सम्भावना बढ़ती है। इस प्रकार की सहिष्णुता दुर्बलता या कायरता नहीं, अपितु सामूहिक व्यवस्था को बनाये रखने की, सुधार की उदात्तभावना है। स्वयं का व्यक्तित्त्व शक्तिशाली बनाने की क्षमता बढ़ती है। वैचारिक आचारिक सहिष्णुता अनेकान्तवाद को जीवन में चरितार्थ करने की कुंजी है। इससे व्यक्ति में सर्वभूतात्मभूत की भावना पनपती है। जो शुभ योग-संवर है, पुण्य है।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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