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________________ ॐ परीषह-विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय 8 ३५५ ॐ सहिष्णुता में जो अभ्यस्त हो जाते हैं। उनके तन-मन-वचन में भयंकर से भयंकर मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक परीषह उपस्थित होने पर भी विचलितता नहीं आती। वे हँसते-हँसते आनन्दपूर्वक उस परीषह को सह लेते हैं। आदर्श स्पष्ट हो तभी धृति और प्रसन्नता जाग्रत होती है परीषह सहिष्णु साधक में ऐसी धृति, आत्म-शक्ति एवं प्रसन्नता तभी जाग्रत होती है-जब उसके सामने एक स्पष्ट आदर्श हो। वीतराग प्रभु या वीतरागता एक आदर्श है, जो व्यक्त नहीं है, फिर भी शुद्ध आत्मा में वीतरागता के या अर्हत्आत्मा के अनन्त-ज्ञान-दर्शन-आनन्द-शक्ति नामक गुणों का समुच्चय प्रगट हो जाता है, प्रगट हो सकता है। अतः मेरा आदर्श वीतराग अर्हत् परमात्मा है। अर्हत् परमात्मा तक मुझे पहुँचना है। मुझे स्वयं आत्मा में सुषुप्त अर्हत्व को जगाना है। इस प्रकार बृहत्-आदर्श स्पष्ट होने पर साधक को बड़े से बड़ा, प्रतिकूल से प्रतिकूल परीषह सहने में आनन्द आएगा। उसकी आन्तरिक शक्तियाँ, क्षमताएँ जाग्रत और विकसित हो जाएंगी। यदि उसके सामने आदर्श स्पष्ट नहीं है तो केवल रटी-रटाई बातें प्रगट करेगा या देखा-देखी करेगा। वह परीषह के आने पर सुख-सुविधा वाला मार्ग खोजेगा, बाहर से सहिष्णुता का दिखावा करेगा। उसके अन्तर में व्याकुलता, दुराव-छिपाव, दम्भ, भय और पलायन की वृत्ति चलती रहेगी। भगवान महावीर द्वारा परीषह-सहन का आदर्श प्रस्तुत ‘आचारांगसूत्र' में भगवान महावीर की परीषह-सहिष्णुता का वर्णन है। उसे पढ़ने से उनकी धृति, आत्म-बल एवं तितिक्षा-क्षमता का स्पष्ट पता लगता है। उसका सारांश इस प्रकार है लाढ़ जैसे रूक्षं देश में तृणस्पर्श, शीतस्पर्श, उष्णस्पर्श एवं दंश-मशक के विभिन्न परीषह भगवान महावीर ने समभाव से सहन किये। - उस रूक्ष प्रदेश वाले लाढ़ देश में रूखा-सूखा आहार करने वाले लोग भी बड़े रूखे थे। इसलिए भगवान को निवास स्थान और आसन भी खराब मिले। फिर भी उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सहन किया। ... कई लोग उनके पीछे हिंसक कृत्ते छोड़ देते थे, कई उन कुत्तों को छुछकारते थे, कुछ थोड़े-से लोग उन शिकारी कुत्तों को दूर भगा देते थे। वहाँ विचरण करने वाले अन्य धर्म-सम्प्रदाय के साधु हाथ में लंबी लाठी रखते थे, जिससे वे कुत्तों को भगा देते थे। परन्तु भगवान महावीर किसी प्रकार का दण्ड या लाठी नहीं रखते थे। न ही वे कोई बचाव करते थे। वे अपने आत्म-बल के आश्रय से वहाँ विचरण करते थे।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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