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________________ * ३५६ ® कर्मविज्ञान : भाग 2 कुछ लोग वहाँ भगवान महावीर पर धूल उछालते, कुछ उन पर थूक देते थे, कुछ लोग डंडे, मुक्के, ढेले, ठीकरे और पटिये से उनको आहत करते थे। कुछ लोग उन्हें अपशब्द कह देते थे और कुछ शरारती लोग उनकी मजाक उड़ाते और उन्हें उठाकर नीचे पटक देते थे। भगवान मौन रहकर इन सब उपसर्गों को कर्मक्षय के हेतु मानकर समभावपूर्वक सह लेते थे। भगवान महावीर जब आसन लगाकर ध्यान करने बैठते तो उपद्रवी लोग उनका आसन भंग कर देते थे। भगवान महावीर इन सब उपसों को इसी तरह सहन करते थे, जैसे शरीर से उनका पृथक् अस्तित्व हो। . . .. इन परीषहों और उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करने से भगवान के पूर्वबद्ध घातिकर्मों का अतिशीघ्र क्षय हो मया। भगवान महावीर की आत्मा में अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति का आवृत सूर्य अनावृत होकर प्रकाशमान हो उठा। __ भगवान महावीर के सामने आदर्श स्पष्ट था, इस कारण उनका धृतिबल, आत्म-बल और आत्मिक आनन्द का बल उत्कृष्ट हो चुका था। इसलिए उनके द्वारा परीषहों पर विजय परम संवर और महानिर्जरा का कारण बना। सहिष्णुता के छोटे लक्ष्य, निर्जरा-संवर के कारण कब, कैसे ? कई लोग यह कहते हैं, राष्ट्र-सेवा, समाज-सेवा तथा ग्राम, नगर या प्रान्त की सेवा अथवा अपनी जाति और कौम की सेवा के लिए जो लोग भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि का कष्ट सहते हैं, स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में कई स्वतंत्रता-सेनानी लाठी, गोली, मारपीट, अपमान आदि कष्टों को भी सहन करते थे। महाराणा प्रताप जैसे कई लोगों ने मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए जंगल में रहकर अभावपीड़ित जीवन बिताया, अनेक कष्ट सहे; क्या उनके या इसी प्रकार के अन्य लोगों के द्वारा कष्ट-सहन करना संवर या निर्जरा का कारण नहीं होगा? जैनसिद्धान्त इसका समाधान इस प्रकार करता है-जिस व्यक्ति में सम्यग्दृष्टि नहीं है, तथा कष्ट-सहन के प्रति संकीर्ण सामुदायिक स्वार्थभावना है, साथ ही उसके विपक्षी या विरोधी के प्रति द्वेष या शत्रुता का भाव है अथवा जो लोग उन्हें भार देते हैं या जिन लोगों ने उन्हें बरबस कष्ट सहने को विवश कर दिया, उन लोगों के प्रति उनमें समभाव रहे ही, ऐसा विरले व्यक्ति में होता है। हाँ, प्रतिपक्षी या विरोधी के प्रति बन्धुभाव हो, उनको सद्बुद्धि पैदा हो, ऐसी भावना हो, तो संवर-निर्जरा तो नहीं, किन्तु पुण्य उपार्जित हो सकता है। जो व्यक्ति दूसरों के प्रति
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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