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________________ ॐ ३५४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ प्रखर बुद्धि होने पर गर्व न करना, वैसी बुद्धि न होने पर खेद न करना। (२१) अज्ञान-विशिष्ट शास्त्रज्ञान से गर्वित न होना और उसके अभाव में मन में हीनभावना न लाना। (२२) अदर्शन-सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों का दर्शन न होने से स्वीकृत त्याग निष्फल न मानना, विवेकपूर्वक श्रद्धा रखना और प्रसन्न रहना। . सर्वाधिक कठिन भावनात्मक परीषह : प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन . __ इन बाईस परीषहों में सबसे अधिक कठिन है-प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन परीषह। प्रजा परीषह उत्पन्न होने पर साधक सोचने लगता है-मुझें कितने वर्ष हुए साधना करते-करते, कितना तप, जप, ध्यान, मौन किया? फिर भी कहाँ स्वर्ग, मोक्ष या अन्य उपलब्धियाँ, सिद्धियाँ ? मैं सचमुच ठगा गया। इसी प्रकार के दुश्चिन्तन से साधक भटक जाता है, पथभ्रष्ट हो जाता है, उपलब्ध संयम-सम्पदा को खो बैठता है। उसकी धृति ध्वस्त हो जाती है। इसी प्रकार अज्ञान परीषह जब आता है तो साधक दूसरे ज्ञान-सम्पन्न मुनियों से ईर्ष्या करने लगता है कि अमुक-अमुक साधु तो शास्त्रीयज्ञान को शीघ्र ही ग्रहण कर लेते हैं, कण्ठस्थ भी कर लेते हैं, एक मैं हूँ, इतने वर्ष हुए रटते-रटते एक अध्ययन भी कण्ठस्थ नहीं होता। ऐसी दशा में उसका मन एक बार तो माष-तुष मुनि. की तरह उद्विग्न और अशान्त हो जाता है। परन्तु माष-तुष मुनि ने पूर्वकृत ज्ञानावरणीय कर्म का उदय समझकर गुरुवचन पर श्रद्धा रखकर रटना नहीं छोड़ा। पवित्र अन्तःकरण से किये हुए पुरुषार्थ के कारण भेदज्ञान की स्थिति में पहुँच गया और अन्त में आत्मा पर से शरीर तथा पर-भावों का मोह विच्छिन्न हो गया। फलतः केवलज्ञान प्रगट हो गया। परन्तु अश्रद्धालु और अधृतिमान मुनि ज्ञानावरणीय कर्म को क्षय करने का पुरुषार्थ करने के बदले स्वयं अज्ञान में पड़े रहना श्रेयस्कर समझते हैं। ज्ञान और ज्ञानी की आशातना करके तथा अज्ञानवादी बनकर इस परीषह से पराजित हो जाते हैं। अदर्शन परीषह से ग्रस्त साधक तो कांक्षामोहनीय कर्म के वशीभूत होकर समाधि से ग्रस्त हो जाता है। धृति और आत्म-शक्ति का विकास : सहिष्णुता के लिए सहायक ___ कई साधक ऐसे भी होते हैं, जो सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि कष्टों को सह लेते हैं, मासक्षपण तप कर लेते हैं, परन्तु मन के प्रतिकूल जरा-सी बात हुई या किसी ने उनका जरा-सा भी प्रतिवाद कर दिया तो वे एकदम भड़क उठते हैं, प्रतिपक्षी को मारने-पीटने या मरवाने या बदनाम करने तक का हिंसात्मक कदम उठा लेते हैं। परन्तु जिनकी धृति और आत्म-शक्ति का विकास हो जाता है, कष्ट१. 'तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन' (पं. सुखलाल जी) से भाव ग्रहण, पृ. २१५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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