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________________ संवर और निर्जरा के सन्दर्भ में १८ परीषह - विजय : उपयोगिता, स्वरूप और उपाय दुःखमुक्ति का राजमार्ग मनुष्य चाहता है - दुःखों से सर्वथा मुक्त होना । दुःखों से मुक्त होने का अर्थ हैमोह से मुक्त होना। दूसरे शब्दों में कहें तो कर्मों से सर्वथा मुक्त होना । क्योंकि कर्मबन्ध के कारण ही जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय आदि दुःख प्राप्त होते हैं। इन्हें जड़ से मिटाना हो तो प्राणवान् बनकर समभावपूर्वक दुःखों, कष्टों, क्लेशों को तन-मन-वचन से सह लेना ही दुःखमुक्ति = कर्ममुक्ति का राजमार्ग है। दुःखमुक्ति कब और कब नहीं ? संसारस्थ जीवों को नाना प्रकार के दुःख, कष्ट या क्लेश आने पर कभी हाय-हाय करते, बरबस, कभी भयवश, कभी लोभ या स्वार्थ के वश, कभी दीनतापूर्वक, कभी अहंकार के नशे से, कभी अज्ञान और मिथ्यात्व के नशे से और कभी कामवासना के उन्माद से इन्हें सहने पड़ते हैं। उससे नारक जीवों के द्वारा निरुद्देश्य दुःख सहने की तरह अज्ञानतापूर्वक सहन करने पर कुछ कर्मक्षय होने के साथ-साथ नये कर्म भी बँध जाते हैं; किन्तु उन्हीं दुःखों को किसी भी निमित्त आदि को न कोसते हुए एवं उपर्युक्त प्रकारों में से किसी भी अज्ञानजनित प्रकार से न भोगते हुए ज्ञानपूर्वक समभाव से भोगने से सकामनिर्जरा होती है । दुःखमुक्ति का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। आते हुए दुःखों के प्रवाह को समभावपूर्वक अपने ही द्वारा कृतकर्मों का फल जानकर प्रसन्नतापूर्वक भोगने से दुःखों को पैदा करने वाले कर्म भी कटते जाते हैं। परीषह - विजय का रहस्य इसे ही शास्त्रीय परिभाषा में परीषह - विजय या परीषह-सहन कहते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' में परीषह-विजय को संवर कहा गया है । २ उसका भी मतलब यही है १. दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो । २. (क) स गुप्ति समिति-धर्मानुप्रेक्षा- परीषहजय-चारित्रैः । (ख) तपसा निर्जरा च । - तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. २-३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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