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ॐ ३३८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
समझने की भ्रान्ति को दूर कर दिया है। मृत्यु वास्तव में हमारी मित्र है। जैसे वस्त्र . जीर्णशीर्ण हो जाता है तो वह पहनने के काम नहीं आता। उसे फेंक देना पड़ता है। अगर कोई हमें पुराने वस्त्र के बदले नया वस्त्र दे दे तो हमें प्रसन्नता ही होती है। इसी प्रकार मृत्यु पुराने शरीर को छुड़ाकर नया शरीररूपी वस्त्र देती है, तो उसे दुःखदायी न मानकर सुखदायी व सहायक मित्र ही मानना चाहिए। दूसरी बात यह है कि आयुष्य क्षीण होने पर मृत्यु का आगमन निश्चित है। इसको मित्र बनाने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि व्यक्ति को अपने जीवनकाल में ही मृत्यु ने मेरे केश पकड़ रखे हैं; ऐसा सोचकर धर्माचरण करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। सच्चा आत्मार्थी-साधक वैसे तो जीने और मरने की इच्छा नहीं करता, न ही वह विपत्ति या कष्ट से घबराकर आत्महत्या करके मृत्यु का आह्वान करता है, किन्तु जीवन के अन्तिम क्षणों में अथवा किसी आकस्मिक दुर्घटना या गम्भीर असाध्य बीमारी के समय मृत्यु का मित्र की तरह आह्वान करता है-मित्र ! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे शरीर पर मोह नहीं है। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण किया है। मैंने अगले जन्म के लिए सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है।" इस प्रकार संलेखना-संथारा करके समाधिमरणपूर्वक मृत्यु का आलिंगन करता है। उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं, समाधि का कारण बनती है। वह अभय होकर मृत्यु को सुखद मानता है। इस प्रकार मृत्यु से मैत्री करने वाला साधक आत्मा पर लगे हुए कर्मदलों को हँसते-हँसते समभाव से भोगकर आत्म-मैत्री को पुष्ट करता है। कर्मबन्ध से अधिकांश रूप से मुक्ति पा जाता है। अतः मृत्यु से मैत्री कर्मनिर्जरा और भावसंवर का विशिष्ट कारण है।