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* विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म- मैत्री है
३३७ खा लेते हैं। सरस स्वादिष्ट आहार खा लेने से पाचन क्रिया विगड़ जाती है। भोजन और रहन-सहन पर संयम न रखने वाला असमय में बुढ़ापे को बुला लेता है । अतः बुढ़ापे के साथ मैत्री के लिए अपनी चर्या तथा आहार-विहार पर संयम रखना अनिवार्य है। जो खान-पान पर संयम नहीं रखते उनका बुढ़ापा सुखद नहीं होता । जो प्रत्येक चर्या में पराधीन और परमुखापेक्षी बन जाता है, वह अपनी शक्ति और क्षमता का सदुपयोग नहीं कर पाता । फलतः पद-पद पर दूसरों के साथ संघर्ष, रोष, आवेश और चिड़चिड़ेपन के कारण अशुभ कर्मों का बन्ध होता रहता है। जिस शक्ति को वह स्व-पर- कल्याण - साधना में लगा सकता था, उसका इस प्रकार अपव्यय करके बुढ़ापे को दुःखद तथा अपनी आत्मा को शत्रु बना लेता है । " मधुर के बजाय दुःखद और कटु न बनाएँ वास्तव में वृद्धावस्था परिपक्व और अच्छी अवस्था है । पके फल में मिठास बहुत आ जाती है। इसी प्रकार बुढ़ापे में जीवन की मिठास आनी चाहिए। परन्तु जो वृद्ध / वृद्धा अपने जीवन को कषाय- नोकषायों से बचाकर संयममय नहीं बनाते, वे असंयम में पड़कर अपने हाथों बुढ़ापे को मधुर के बजाय कटु एवं दुःखद बना लेते हैं। चिन्ताओं और व्यस्तताओं का बोझ लादकर वे जीवन के अन्त तक बुढ़ापे से मैत्री नहीं कर पाते। वे सुख के साधन जुटाने पर भी सुख से जीना नहीं जानते । २
बुढ़ापे को
मृत्यु के साथ मैत्री : एक अनुचिन्तन
मृत्यु भी संसार में सबसे बड़ा दुःख माना जाता है । परन्तु भयोत्पादक और दुःखदायक उसी के लिए है, जो मृत्यु के साथ मैत्री नहीं कर पाता । मृत्यु को अपना मित्र बना लेने पर वह मनुष्य के लिए भय और दुःख का कारण नहीं बनती। परन्तु इस शरीर पर तथा शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पर - पदार्थों पर मोह, . आसक्ति और स्वार्थ होने के कारण व्यक्ति सोचता है, मेरी मृत्यु कदापि न हो, मृत्यु इन सबसे वियोग करा देती है, इसलिए मृत्यु दुःखदायी लगती है, वह जब आती है, तो मनुष्य को एकदम गहरी नींद में सुला देती है, मनुष्य अपनी मनचाही सुख-शान्ति, मनचाही मौज - शौक नहीं कर पाता, सभी कार्य अधूरे छोड़कर जाना पड़ता है, इसलिए उससे भयभीत रहते हैं। परन्तु भगवान महावीर ने समाधिमरण 'या पण्डितमरण की कला बताकर मनुष्यों को मृत्यु से डरने और दुःखदायी
१. 'जीवन की पोथी' से भाव ग्रहण, पृ. ३२-३३
२. वही, पृ. ३५.
३. देखें - उत्तराध्ययनसूत्र का ५वाँ अकाममरणीय अध्ययन