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® ३३६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ *
आत्म-साधना में लग जाना चाहिए, ताकि चिन्ता, तनाव और भविष्य के जीवननिर्वाह आदि के भय से मुक्ति मिल सके। देखा गया है कि समाज-सेवा में निष्ठापूर्वक लगे रहने वाले व्यक्ति को समाज आदर की दृष्टि से देखता है, उसके गुणों पर मुग्ध होकर उसकी सेवा-भक्ति करने में समाज और परिवार के लोगों को आनन्द का अनुभव होता है। वृद्धावस्था में व्यक्ति को यही सोचना चाहिए शुद्ध धर्माचरण की निष्ठा से व्यक्ति को कैसी भी परिस्थिति में दुःख महसूस नहीं होता। समाज-सेवा से उसका पुण्य-बल बढ़ जाने से सभी लोग उसके वचनों को शिरोधार्य करते हैं। इन्द्रियसंयम, ज्ञाता-द्रष्टाभाव : बुढ़ापे के साथ मैत्री का एक सूत्र
बुढ़ापे में इन्द्रियाँ वैसे ही क्षीण हो जाती हैं, वे काम करना बंद कर देती हैं या शिथिल हो जाती हैं। इसलिए इन्द्रियों और मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता या आसक्ति-घृणा अथवा मोह-द्रोह का भाव न लाकर ज्ञाता-द्रष्टा बनकर रहने का अभ्यास करने से तथा इन्द्रिय-संयम से व्यक्ति आत्म-साधना अधिकाधिक करके बुढ़ापे के प्रति मैत्री भी स्थापित कर सकता है और कर्मनिर्जरा का लाभ भी अनायास ही प्राप्त कर सकता है। किन्तु इन्द्रियाँ क्षीण हो जाने के साथ कषायों में, तृष्णा और मोह में वृद्धि पर भी नियंत्रण करना जरूरी है। कई वृद्ध लोग शक्ति होते हुए अपना कर्तव्य, सेवा-कार्य, दायित्व तथा कर्तृत्व क्षमता के प्रति उपेक्षा करके अकर्मण्य होकर बैठ जाते हैं, इससे वे परिवार और समाज को भारभूत लगते हैं। निवृत्ति का अर्थ अकर्मण्य बनकर बैठ जाना नहीं है, अपितु अठारह प्रकार के पापस्थानों, कषायों, ईर्ष्या, द्वेष, आवेश आदि से निवृत्त होकर निरवद्य एवं शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना भी है। तन, मन, वचन और अनुभव की जितनी शक्ति है, उसका यथोचित उपयोग करते रहने से बुढ़ापे के साथ सुखद मैत्री भी हो जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि जब तक साधक का उत्थान, कर्म (कर्तृत्वक्षमता), बल (शरीर-मन का बल), वीर्य (शक्ति), पुरुषार्थ-पराक्रम जब तक रहा, तब तक उन्होंने स्व-पर-कल्याण-साधना में उसका अनवरत अप्रमत रहकर उपयोग किया। अतः वृद्ध-वृद्धा को भी अपने उत्थानादि सुरक्षित हों, तब तक व्यर्थ के कार्यों में, लड़ाई-झगड़ों में अपनी शक्ति का अपव्यय न करके, समाज-सेवादि कार्यों में शक्ति का सदुपयोग करना चाहिए। इससे शक्ति का क्षय न होकर उसमें वद्धि ही होगा। . बुढ़ापे के साथ मैत्री के लिए आहार-विहार संयम जरूरी • .. बुढ़ापे के साथ मैत्री करने के लिए अपने आहार-विहार पर तथा रहन-सहन पर भी संयम रखना आवश्यक है। कई लोग बुढ़ापे में गरिष्ठ और दुष्पाच्य चीजें