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ॐ ३३२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
कि भयंकर पीड़ा, कष्ट या बीमारी होते हुए भी दृढ़ आत्म-विश्वास के धनी कई व्यक्ति उसकी कोई परवाह नहीं करते। वे परमात्म-भक्ति में या अपने इष्टदेव की भक्ति में इतने मग्न रहते हैं, बीमारी उनका कुछ भी बिगाड़ न सकी, बल्कि इष्टदेव के साथ तन्मय हो जाने से उनकी बीमारी भी समाप्त हो गई। अशुभ कर्म शुभ में परिणत हो गया। दृढ़ आस्थापूर्वक जप से कैंसर रोग मिट गया . .. आज से लगभग ४९ वर्ष पहले की सन् १९४५ की घटना है। जामनगर के श्री गुलाबचन्दभाई को गले और जीभ का कैंसर हो गया था। जिसके कारण गला अत्यन्त सिकुड़ जाने से पानी पीना भी कठिन हो गया। बम्बई के टाटा मेमोरियल होस्पिटल में भर्ती हो गए थे। डॉक्टर मोदी ने सभी प्रकार के टेस्ट करके बतलाया कि आपकी बीमारी आखरी स्टेज पर पहुँच गई है। घर जाओ और आराम से रहो। गुलाबचन्दभाई घर आए। निराशा में आशा का संचार हुआ। सोचा-मृत्यु तो एक दिन आएगी ही, परन्तु मैं पंचपरमेष्ठी. भगवन्तों का नाम जपते-जपते शुभ भावना में जाऊँ तो मेरी सद्गति तो हो जाएगी। उन्होंने परिवार के सब लोगों से क्षमायाचना की। सब जीवों से क्षमा माँगी और सर्व जीवों के कल्याण, मंगल और सुख की भावना करके परमेष्ठी मंत्र का जाप करने बैठ गए। जाप में एकाग्र होने से पीड़ा की अनुभूति कम हो गई। सभी सांसारिक इच्छाएँ समाप्त-प्राय हो गईं। एकमात्र पंचपरमेष्ठी भगवन्तों के प्रति अनन्त आस्था में तन्मय हो गए। रात्रि के कोई ग्यारह बजे जोरदार वमन हुआ। शरीर में से विषाक्त रक्त निकल गया। पूरा तसला भर गया। आस्थापूर्वक नामस्मरण से कैंसर का विषाक्त रोग मानो समाप्त हो गया। तबियत हल्की हुई। पानी पिया। उनकी माँ ने प्याला भर दूध दिया, वह भी पी लिया। उस रात को अच्छी नींद आ गई। चार-पाँच दिनों में तो तरल पदार्थ और पौष्टिक खुराक भी खाने-पीने लगे। नवकार मंत्र पर आस्था दृढ़ हुई। डॉक्टरों को भी आश्चर्य हुआ। परन्तु गुलाबचन्दभाई के द्वारा दृढ़ विश्वास दिलाने पर उन्हें भी इष्टदेव के प्रति दृढ़ आस्था से रोग-निवारण और रोग के साथ मैत्री के अमुक प्रभाव को देखकर मानना पड़ा।
यह था प्रभु-स्मरण के प्रति दृढ़ आस्था का अचिन्त्य प्रभाव, जिसके कारण असाध्य समझे जोने वाले रोग भी समाप्त हो जाते हैं।
१. 'जीवन की पोथी' से भावांश ग्रहण, पृ २. 'मृत्युंजय णमोकार' से सार संक्षेप