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ॐ विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है * ३३१ ॐ
व्यक्ति की पाचन शक्ति दुर्बल है, उसे मिष्टान्न खाने में सुखाभास होता है, किन्तु खाने के बाद अजीर्ण, गैस, अम्ल-पित्त आदि विकार पैदा हो जाता है, क्या उसके लिए मिष्टान्न अच्छा माना जाएगा? कभी नहीं। फलितार्थ यह है-जो अपने जाने के बाद अच्छाई छोड़ जाता है, वह हमारे लिए हितकारी मित्र का काम करता है; इसके विपरीत, जो जाने के बाद हमारे लिए बुराई छोड़ जाता है, वह शत्रु का काम करता है। रोग आते समय भले ही दुःखकर लगे, परन्तु जाने के बाद सुखकर लगता है, अतः रोग को हम हितकर समझकर उसे मित्र की दृष्टि से देखें तो वह हमारे जीवन के लिए कल्याणकारी, सुखद और मित्र ही सिद्ध होगा।'
रोग के साथ मैत्री करने के लिए चिन्ता आदि से छुटकारा अब प्रश्न यह है कि रोग के साथ मैत्री कैसे की जाए? उसके लिए क्या-क्या साधक उपाय हैं ? रोग के साथ मैत्री करने के लिए सर्वप्रथम तीन बातों से छुटकारा पाना जरूरी है-(१) चिन्ता, (२) भय, और (३) तनाव। किसी-किसी रोग का नाम सुनते ही व्यक्ति चिन्ता में पड़ जाता है, वह सिहर उठता है। टी. बी., कैंसर, दमा, मधुमेह आदि रोगों का आजकल बहुत दौरदौरा है। टी. बी., कैंसर, दमा, मधुमेह आदि रोग अब.असाध्य नहीं रहे। मनुष्य इनके कारणों से पहले तो दूर रहे, खान-पान और रहन-सहन में सादगी रखे, संयम से रहे तथा परहेज रखे तो एकाएक बीमारी नहीं आती। कदाचित् पूर्वकृत कर्मोदयवश रोग आ भी जाए तो व्यक्ति चिन्ता, तनाव से दूर रहे, डरे नहीं। उचित शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक (ऑटो सजेशन) आदि उपचार करे तो दवा की अपेक्षा उनसे जल्दी ठीक होता है। चिन्ता और भय से ग्रस्त व्यक्ति जरा-सी पीड़ा या व्याधि को मन पर अधिक ले लेता है। पीड़ा होती है-पाँच प्रतिशत, उसे महसूस कर लेता है-पचास प्रतिशत। चिन्ता के कारण मस्तक में तनाव हो जाता है। भविष्य की अनिष्ट कल्पनाओं में डूबकर व्यक्ति भय के मारे काँपने लगता है। इससे व्यक्ति रोग के साथ स्वाभिमुखी मैत्री न होकर पराभिमुखी मैत्री (दोस्ती) कर लेता है। उसकी बीमारी, दुःख, पीड़ा बढ़ती जाती है और इन तीनों से मुक्त रहे तो व्यक्ति को पचास प्रतिशत बीमारी या उसकी पीड़ा पाँच प्रतिशत जितनी भी महसूस नहीं होगी।
अभय और निश्चिन्तता से आत्माभिमुखी मैत्री अभय से, निश्चिन्तता से और घुटन न करने से रोग और पीड़ा के साथ आत्माभिमुखी मैत्री स्थापित की जा सकती है। कई दफा हम स्वयं अनुभव करते हैं
१. "जीवन की पोथी' से भावांश ग्रहण, पृ. २६-२७