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________________ * ३३० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * रोगादि दुःखों को मित्र बनाने की पद्धति रोग, व्याधि या बीमारी के समय आत्मा योगों की चंचलता, राग-द्वेषादियुक्तता के कारण अपने स्वभाव को छोड़कर आर्तध्यान या राग-द्वेष-मोह या कषाय के कारण दुःखी होती है। अतः रोग या व्याधि के आने पर उसके साथ मैत्री स्थापित करने की पद्धति यह है कि रोगादि आने पर उनसे भयभीत मत बनो; चिन्ता मत करो। यह सोचो कि यह रोग किसी पूर्वकृत अशुभ कर्म के फलस्वरूप आया है। यह इसलिए आया है कि तुम अपने पूर्वकृत कर्मों के. फल को समभाव से, शान्ति से, ज्ञानबल से, ज्ञाता-द्रष्टा बनकर धैर्यपूर्वक भोगकर सकामनिर्जरा (उक्त कर्मों को क्षय) करके आत्मा को शुद्ध बना सको। अतः रोग हमारा मित्र है अतिथि है। आगन्तुक अतिथि का स्वागत किया जाता है, उसे रहने के लिए स्थान दिया जाता है। रोग या व्याधि भी एक प्रकार की अतिथि है, उसका स्वागत करना चाहिए। रोग के साथ जब व्यक्ति मैत्री का दृष्टिकोण बना लेता है तो दुःख, पीड़ा या कष्ट का अनुभव सुख और शान्ति में परिणत हो जाता है। इसके दो परिणाम एक साथ निष्पन्न होते हैं-एक ओर से-रोग को कष्ट देने वाला या बुरा करने वाला न मानकर अपने लिये कर्म के कर्ज को चुकता कराके आत्मा को शुद्ध कराने में निमित्त समझा जाता है, ऐसा करने से आर्तध्यानवश नये कर्म का बन्ध नहीं होगा; दूसरी ओर से-स्वकृत कर्मों के उक्त रोगरूप फल को समभाव से, शान्ति से भोग लेने पर निर्जरा (कर्मक्षय) होगी। रोग को अपना बुरा न करने वाला कैसे समझा जाए?? व्याधि या तज्जनित पीड़ा आते समय अच्छी नहीं लगती, परन्तु जब व्याधि चली जाती है, उसकी पीड़ा मिट जाती है, तब वह बहुत अच्छी लगती है। प्राकतिक चिकित्सा का सिद्धान्त है कि ज्वर, रोग या कष्ट शरीर में तभी होता है, जब विजातीय विषाक्त तत्त्व शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। रोग उसकी चेतावनी देने तथा शरीर में संचित उस विषाक्त तत्त्व को बाहर निकालकर सफाई करने आता है। शरीर के विजातीय विषाक्त तत्त्वों को हटाकर शुद्ध करने वाले रोग को शत्रु माना जाएगा या मित्र? ठीक है, वह आते समय कष्ट देता है, परन्तु थोड़ा-सा कष्ट देकर क्या वह (रोग) जाते समय सुख की अनुभूति नहीं कराता? दुःख देने वाले सभी शत्रु नहीं होते, न ही सुखद प्रतीत होने वाले सभी मित्र होते हैं। शत्रु और मित्र की पहचान उसकी प्रवृत्ति के परिणाम से होती है। डॉक्टर जब ऑपरेशन करते समय पेट चीरता है, तब अच्छा नहीं लगता, किन्तु जब रोगी स्वस्थ हो जाता है, उसके शरीर से विजातीय एवं विषाक्त तत्त्व निकालकर वह शरीर को शुद्ध कर देता है, तब कितना अच्छा लगता है? एक १. 'जीवन की पोथी' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. २४-२५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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