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* विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है ॐ ३२९ ®
चार दुःखों में अन्य सभी दुःखों का समावेश 'उत्तराध्ययनसूत्र' में मुख्यतया चार दुःखों का उल्लेख भगवान महावीर ने किया है-जन्म, जरा (बुढ़ापा), रोग और मृत्यु, ये चार दुःख हैं। इन चारों दुःखों को बार-बार भोगने (वेदन करने) के कारण संसारी जीव क्लेश पाते हैं। अर्थात् पूर्वबद्ध अशुभ कार्य के उदय से आर्तध्यान करते हुए जीव अशुभ फल भोगते हैं, दुःखानुभव करते हैं। अगर इनके साथ मैत्री स्थापित कर ली जाए तो उस दुःख को समभाव से भोगने पर वही दुःख सुखरूप में परिणत हो सकता है। साथ ही कर्मों की निर्जरा भी हो सकती है। ‘पंचास्तिकाय' में कहा गया है-"जिस साधक का किसी भी (सजीव-अजीव) द्रव्य के प्रति राग, द्वेष और मोह नहीं है, जो सुख-दुःख में समभाव रखता है, उसे न पुण्य का आस्रव होता है और न पाप का।" अर्थात् वह समभाव से भावित होने से कर्मनिर्जरा कर लेता है।
पहले अनेक प्रकार के जो दुःख गिनाये हैं; उनमें से शरीर-सम्बन्धी प्रतिकूल स्थितियों का जन्म दुःख में तथा शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक रोगों का रोगरूप दुःख में तथा अवशिष्ट दुःखों का जरा और मरणरूप दुःख में समावेश हो जाता है। अब हमें यह देखना है कि रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, वर्तमान जीवन आदि दुःखों के साथ किस-किस प्रकार की अनुप्रेक्षा, भावना या आराधना करके मैत्री स्थापित कर सकते हैं, जो आत्म-मैत्री में सहायक हो।' .: जन्म दुःखमय है, इसे सुखमय बनाने हेतु जन्म-मरण का अन्त करो - जन्म के समय शिशु को दुःख की अनुभूति नहीं होती। उसको जन्म देने वाली माता को होती है। वैसे जन्म और मरण दुःख के ही कारण हैं। अगर जन्म-मरण के दुःख को मिटाना है, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की शुद्ध साधना करके कर्मों का क्षय कर ले तो फिर जन्म-मरण से आत्मा मुक्त हो जाती है। .. आध्यात्मिक दृष्टि से जन्म के दुःख के साथ बाल्य, युवा और वृद्धावस्था ये तीनों अवस्थाएँ लगी हुई हैं, साथ ही रोग, विपत्ति, संकट, असुरक्षा, इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, मृत्यु आदि दुःख भी इसके साथ संलग्न हैं। अतः जन्म परमार्थतः दुःखमय है। इसे सुखमय बनाने हेतु जन्म-मरण का अन्त करना या कर्मास्रवनिरोध या कर्मनिर्जरा करके उसे अल्प करना अनिवार्य है।
-उत्तराध्ययन, अ. १९, गा. १५
१. (क) जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगाणि मरणाणि य। ... अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो। (ख) जस्स ण विज्जदि रागो, दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु।
णासवदि सुहं असुहं, समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।
-पंचास्तिकाय १४२