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ॐ ३२८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ &
राग-द्वेष का क्षय करना ही एकान्त मोक्ष-सुख का कारण
इसीलिए भगवान महावीर ने एकान्त आत्मिक सुख के लिए अपनी अन्तिम देशना में कहा-"राग और द्वेष के सम्यक प्रकार से क्षय करने से आत्मा (सर्वकर्ममुक्तिरूप) एकान्त सौख्यरूप मोक्ष को प्राप्त कर पाता है।"१
निष्कर्ष यह है कि वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति राग-द्वेषयुक्त सम्बन्ध जोड़ना ही बन्ध है, दुःख का कारण है। जहाँ राग है, वहाँ द्वेष अवश्य होता है। राग की पूर्ति में बाधा पड़ना ही द्वेष या दुःख का कारण है। दुःखों के साथ मैत्री का फलितार्थ : वीतरागभाव या समभाव .. .
इसलिए दुःखों के साथ मैत्री का फलितार्थ है-दुःख या मनःकल्पित सुख में तटस्थभाव, मध्यस्थभाव या उपेक्षाभाव रखना। इसी को शास्त्रीय भाषा में वीतरागभाव या समभाव कहा गया है। भगवान महावीर ने वीतरागभाव की उपलब्धि का लाभ बताते हुए कहा-“वीतरागभाव से सम्पन्न जीव सुख और दुःख में समभाव. रखने वाला होता है।" अर्थात् जहाँ वीतरागभाव होगा, वहाँ सुख दुःख में, हानि लाभ में, सम्मान अपमान में, विभिन्न संयोगों-वियोगों में, अनुकूलता और प्रतिकूलता में, निन्दा प्रशंसा में समभाव, तटस्थता, मध्यस्थता या उपेक्षाभाव अवश्य होता है।
सम्भव है, पूर्ण वीतरागता एकदम न प्राप्त की जा सके, किन्तु आंशिक वीतरागता तो सम्यग्दृष्टि साधक प्राप्त कर ही सकता है। मेले-ठेलों में हजारों प्रकार के मनोज्ञ-अमनोज्ञ सामानों की दुकानें लगी रहती हैं, अनेक अच्छे-बुरे लोग भी मिलते हैं, किन्तु उनके प्रति तटस्थभाव या उपेक्षाभाव या समभाव होने से व्यक्ति उनसे प्रभावित नहीं होता, न राग करता है, न द्वेष। इसलिए सुखासक्त या दुःख प्रभावित नहीं होता। इसी तरह संसार के मेले में अनेक वस्तु या व्यक्तियों से, घटना
और परिस्थितियों से वास्ता पड़ने पर भी हम तटस्थ, समस्थ रहें तो सुख-दुःख के भोग से अलिप्त रहा जा सकता है। यही आत्मा के साथ मैत्री का ठोस उपाय है।२
१. (क) 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भाव ग्रहण, पृ. १२ (ख) रागो य दोसो वि य कम्म बीयं।
-उत्तरा. ३२/७ (ग) रागस्स दोसस्सय संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं।
-वही ३२/२ २. (क) वीयराग-भाव-पडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवई। -वही, अ. २९, बोल ३६ (ख) लाभालाभे सुहेदुक्खे जीविए-मरणे तहा। समो जिंदा-पसंसासु तहा माणावमाणओ॥
-वही १९/९०