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* धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव
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शुद्ध धर्म (संवर-निर्जरारूप या रत्नत्रयरूप धर्म) की साधना इसलिए की जाती है कि (अर्थ) पदार्थों के परिग्रह (ममता) की तथा काम (कामभोग और सुखभोग के साधनों) की भावना समाप्त हो। कर्ममुक्तिरूप मोक्ष के लिए भी धन, राज्य, परिवार, सुख-सुविधा, इन्द्रिय-विषय सुख आदि सब कुछ छोड़ना जरूरी होता है। परन्तु भ्रान्तिवश पुण्य को धर्म मान लिया गया। फलतः अधिकांश मनुष्यों की प्रवृत्ति पुण्य के उपार्जन में लग गई। पुण्य का उपार्जन मुख्य और धर्माचरण में पुरुषार्थ गौण हो गया।
धर्म की उपासना करने पर भी जीवन में परिवर्तन क्यों नहीं ? चेतना के स्तर पर जागने का नाम धर्म है। चेतना के स्तर पर अर्थात् आत्मा पर आए हुए राग-द्वेष, काम-क्रोधादि आवरणों को दूर कर आत्म-शुद्धि के स्तर पर जो नहीं जागता, वह चाहे कितने ही क्रियाकाण्ड करे, कितनी ही बाह्य भक्तिउपासना करे, वह कदाचित् शुभ कर्म (पुण्य) का उपार्जन कर सकता है, परन्तु धर्म का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। यही कारण है कि दीर्घकाल तक धर्म की इस रूप में उपासना करने पर भी व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन नहीं आता। उसके जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, माया, स्वार्थभावना आदि कम नहीं होते। धर्म-धुरन्धरों द्वारा भी उसे धार्मिक का पद दे दिया जाता है। धार्मिक और धर्मानुयायी में बड़ा अन्तर है। धार्मिक वह है, जिसके जीवन में अहिंसादि व्रत हों, संयम और बाह्याभ्यन्तर तप हों। धर्मानुयायी में ये हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते। धर्मोपदेश से जब भी पूछा जाता है कि इस क्रियाकाण्ड और बाह्य भक्तिउपासनात्मक धर्म से क्या मिलेगा? तब उनके द्वारा प्रायः यही समाधान दिया जाता है-तुम्हारा परलोक सुधर जायेगा। वहाँ धन-सम्पदा, ऋद्धि और ऐश्वर्य प्राप्त होगा। जिसका वर्तमान जीवन नहीं सुधरता, उसका पारलौकिक जीवन कैसे सुधर जायेगा? कषाय मन्द नहीं हुआ, विषयासक्ति कम नहीं हुई, वृत्तियों में परिवर्तन नहीं हुआ, उसका परलोक कैसे सुधर जायेगा?
. . धर्म के नाम से नाना भ्रान्तियाँ : धर्म की आत्मा लुप्त ... धर्म का गठबन्धन कर दिया स्वार्थसिद्धि और पदार्थ-प्राप्ति के साथ। ऐसा
करने से धर्म की वास्तविक आत्मा लुप्त हो गई और धर्म के नाम से नाना भ्रान्तियाँ फैल गईं। एक बार जब धर्म के नाम से मन में मिथ्या धारणा जड़ जमा लेती है, तो वही पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है। एक उदाहरण से इस तथ्य को स्पष्ट समझ लेना ठीक होगा- एक बुढ़िया थी। वह सन्तदर्शन, धर्मध्यान, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि धार्मिक क्रियाएँ करती थी। उसके एक ही पुत्र था। पति के देहावसान के बाद उसने