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* १४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
पुण्यफल को धर्म का फल मानने से आत्मिक हानि
इसी भ्रान्ति के शिकार होकर अधिकांश व्यक्ति संवर-निर्जरारूप या ज्ञानादि रत्नत्रयरूप वास्तविक धर्म का पालन न करके शुभ कर्मरूप पुण्य को धर्म मानकर उसका आचरण करते हैं, ताकि उससे धन, मकान, पुत्र, पौत्र, सौभाग्य, सौन्दर्य आदि मिल जायें। यदि इस भ्रमवश वे स्वार्थ, लोभ और प्रलोभन से प्रेरित होकर कुछ करते हैं और उन्हें अपनी इच्छा के अनुरूप फल या पदार्थ मिल जाता है, तव तो उस तथाकथित धर्म के प्रति उनकी आस्था बढ़ जाती है, अगर उनके अशुभ कर्मोदयवश मनोऽनुकूल कुछ नहीं होता है या उलटा हो जाता है, तो उनकी आस्था ' धर्म के प्रति डगमगा जाती है। वे वास्तविक संवर-निर्जरारूप धर्म को तो अज्ञतावश पहले से छोड़े हुए हैं, उक्त तथाकथित धर्म को भी छोड़ बैठते हैं। इतना ही नहीं, वे धर्म, धर्म-गुरु और भगवान को भी गालियाँ देने या कोसने लगते हैं। उनका मनःसमाधान न हो तो वे अन्तिम समय तक नास्तिक बने रहते हैं। वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और रत्नत्रयरूप धर्म के प्रति उनकी अनास्था हो जाती है। धर्म तो वासनाओं, आकांक्षाओं, कामना-नामनाओं से तथा स्वार्थ और पर-पदार्थों के प्रति राग-द्वेष से मुक्ति दिलाने वाला है, परन्तु गलत धारणावश धर्म को जोड़ दिया वासनाओं, आकांक्षाओं, कामना-नामनाओं के साथ। धर्म और पुण्य को एक मानने से शुद्ध धर्म मूल्यों की हानि
इस भ्रान्त धारणा का परिणाम यह हुआ कि धर्म और पुण्य को तथा मिलने वाले पदार्थ को भी धर्म के साथ जोड़ दिया गया। कोई (तथाकथित) धर्म नहीं करता है तो लोग उसे कहने लगते हैं-“धर्म करोगे नहीं, तो परलोक में जाकर क्या पाओगे? धन चाहिए, पुत्र चाहिए, सुख-सुविधा एवं सुखभोग के साधन चाहिए तो धर्म (तथाकथित) करो।" कर्मसिद्धान्त के अनुसार पुण्य से सुख और पाप से दुःख प्राप्त होता है। कोई अगर निर्धन है, अभाव-पीड़ित है तो उसके लिए लोग कह देते हैं-बेचारे ने पूर्व-जन्म में धर्म नहीं किया, अशुभ कर्म किये, उन्हीं का फल भोग रहा है। कोई धनिक है तो उसके लिए कह देते हैं-बड़ा भाग्यशाली है, पूर्व-जन्म में धर्म, पुण्य किया है, इसलिए धन-सम्पन्न है। इस प्रकार धर्म और पुण्य को एक मानकर धनादि पदार्थों के साथ जोड़ दिया गया। महाभारतकार वेदव्यास जी ने भी कहा
"धर्मादर्थश्च कामश्च, स धर्मः किं न सेव्यते ? -धर्म से अर्थ और काम स्वतः प्राप्त होते हैं, उस धर्म का सेवन क्यों नहीं करते? १. 'महाभारत' (वेदव्यास)