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________________ ॐ धर्म और कर्म का कार्य, स्वभाव और प्रभाव ॐ १३ ॐ और बन्ध को अधर्म की कोटि में माना गया है, उसे (उस पुण्य को) धर्म मानना कितनी बड़ी भ्रान्ति है? अधर्म को धर्म मानना-समझना मिथ्यात्व है। उसी प्रकार जो (पुण्य) संसार का मार्ग है, उस शुभ कर्मरूप पुण्य को संवर-निर्जरारूप या रत्नत्रयरूप धर्म का (कर्ममुक्तिरूप) मोक्ष का मार्ग मानना उससे भी बढ़कर मिथ्यात्व है। संवर-निर्जरारूप धर्म के साहचर्य से शुभ कर्मरूप पुण्य को भी भ्रान्तिवश धर्म मान लिया गया। धर्म का कार्य है-संसार को परित्त (सीमित) करना, घटाना, कर्मों को रोकना तथा कर्मों को तोड़ना। इन्हें जैन-कर्मविज्ञान की भाषा में क्रमशः संवर और निर्जरा कहते हैं। पुण्य न तो कर्मों को रोकता है और न ही कर्मों को तोड़ता है। फिर भी लोग कह देते हैं, धर्म से पुत्र-पौत्र मिलता है, धर्म से धन मिलता है, धर्म से अच्छा मकान, सुन्दर नारी, जमीन, जायदाद, अच्छे मित्र आदि मिलते हैं। परन्तु ये सब धर्म के कार्य नहीं हैं। शुभ कर्म (पुण्य) के कार्य हैं। परन्तु ऐसा कथन धर्म के साथ पुण्य का साहचर्य होने के कारण होता है। निर्जरारूप धर्म के साथ पुण्य (बन्ध) होता है। कई दफा साहचर्य के कारण दोनों को एक मानकर इधर का भार उधर और उधर का भार इधर डाल दिया जाता है। पुण्य (शुभ कर्म) का बन्ध धर्म का काम नहीं है। धर्म का कार्य संवर-निर्जरा के माध्यम से चेतना को बदलना, अन्तःकरण को शुद्ध करना है। मन-वचन-तन की प्रवृत्तियाँ दोनों प्रकार की होती हैं-अच्छी भी, बुरी भी। इनके साथ राग-द्वेष जुड़ता है, तब पुण्य-पाप का बन्ध होता है। कई लोग भ्रान्तिवश यह भी कह देते हैंसंवर-निर्जरारूप धर्म से पुण्यबन्ध होता है और उससे राज्य, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र आदि मिलते हैं। जैसा कि 'शान्तसुधारस' में धर्मभावना के सन्दर्भ में कहा गया है 'प्राज्यं राज्यं सुभग-दयिता, नन्दनानन्दनानाम्। रम्यं रूपं सरस-कविता-चातुरी सुस्वरत्वम्॥ नीरोगत्वं गुण-परिचयः, सज्जनत्वं सुबुद्धिः। किन्नु ब्रूमः फल-परिणतिं धर्म-कल्पद्रुमस्य॥१ -विशाल राज्य, सौभाग्यशाली पत्नी, पुत्रों के पुत्र, रमणीय रूप, सरस काव्य-रचना चातुर्य, सुम्वरत्व, नीरोगता, गुणिजनों का परिचय (सत्संग), सज्जनता, सद्बुद्धि आदि कहाँ तक कहें, धर्मरूपी कल्पवृक्ष से सब कुछ मिलता है, ये सब धर्म-कल्पतरु के ही परिपक्व फल हैं। १. 'शान्तसुधारस' (उपाध्याय विनयविजय) में धर्मभावना, श्लो. ७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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