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________________ * विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है ॐ ३२३ ॐ और अहंकारमग्न या गफलत में रहते हैं कि हमारा बहुत दबदबा है, सुख के सभी साधन मौजूद हैं, आनन्द से जी रहे हैं, हमें कौन दण्ड देने वाला है या हम अभी तो इतना सब पापकर्म, बेईमानी, अत्याचार, अनाचार करके भी सुख से जी रहे हैं, जीएँगे। इसीलिए भगवान महावीर ने कहा है-अज्ञानी आत्मा पाप करके भी उस पर अहंकार करता है। पापकर्म उदय में आने पर उन्हें नानी याद आ जाती है - यही ठीक है कि पूर्वबद्ध जब तक सत्ता (अबाधाकाल) में पड़ा रहता है, तब तक वह शान्त रहता है, सोया रहता है, कुछ भी नहीं कर पाता, इस कारण उपर्युक्त टाइप के अधिकांश लोग इस मुगालते में रहते हैं कि हम चाहे जितने पाप करें, हमारा कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। परन्तु जब वे पूर्वबद्ध पापकर्म उदय में आते हैं, तब अकल्पनीय दुःख आकर सहसा टूट पड़ते हैं। उस समय बड़े-बड़े सुभटों, सत्ताधीशों या धनाढ्यों आदि के छक्के छूट जाते हैं। लाखों लोगों को अपनी मुट्ठी में रखने वालों की इतनी दयनीय दुर्दशा कर्मोदय कर डालता है कि वह उस समय कुछ भी नहीं कर पाता और हायतोबा मचाता हुआ रोते-रोते अगले दुर्गति लोक के लिए प्रस्थान करता है। ____ पापकृर्मियों की अन्तिम समय में करुण मृत्यु से बोधपाठ लो सिकन्दर ने लड़ाई करके आधी दुनियाँ जीतकर कब्जे में कर ली थी और आधी दुनियाँ की सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी, लेकिन अन्तिम समय में जब वह इस दुनियाँ से कूच करने वाला था, अपने दरबारियों से पूछा-“क्या यह जीती हुई जमीन, सम्पत्ति आदि वस्तुएँ परलोक में मेरे साथ जा सकेंगी?" इस पर दरबारियों ने कहा-“हजूर ! परलोक में आपके साथ बिलकुल नहीं जायेंगी। एक धागा भी नहीं चलेगा आपके साथ।" इस पर सिकन्दर बहुत रोया, बहुत पछताया और अन्त में आर्तध्यान करता-करता मरा। "काले लोगों को कालों के साथ लड़ाकर इस पृथ्वी पर से उनका नामोनिशान मिटा दो", इस प्रकार का आदेश देने वाले ‘डलेस' को जब कैंसर रोग हुआ, तब वह अत्यन्त घबराया। उसने उस भयंकर रोग के निवारण के लिए एक लाख डॉलर के इनाम की घोषणा की थी। परन्तु कोई भी उसके इस भयंकर रोग को न मिटा सका। अन्त में, वह बेचारा रिब-रिबकर मर गया। भयंकर तानाशाह और अनेकों निर्दोष लोगों को मृत्यु के मुख में पहुँचाने वाले हिटलर दुःख के शिकंजे में पड़ने पर आत्महत्या करके मरा। ईरान के अत्याचारी शाह ने करुण दशा में मृत्यु प्राप्त की। भयंकर युद्ध जैसे १. बाले पापेहिं मिज्जती। -सूत्रकृतांग १/२/२/२१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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