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________________ ॐ ३२२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ * दुःख-मैत्री-साधक द्वारा संवर-निर्जरा धर्म का अनुप्रेक्षण ___ दुःखों के साथ मैत्री करने वाला साधक संवर-निर्जरारूप धर्म की अनुप्रेक्षा करता है और आ पड़े हुए दुःखों को. समाधिपूर्वक सहन करता है। वह अनुप्रेक्षणात्मक चिन्तन करता है-(१) मैंने जो दुःखद फलदायक दुष्कर्म बाँधे हैं, उन्हें मुझे ही भोगना है। हँसते-हँसते बाँधे हुए कर्म, अब रोने-चिल्लाने से छूटने वाले नहीं हैं। अतः मुझे अपने द्वारा बाँधे हुए अशुभ कर्मों का फल हँसते-हँसते भोगकर उनसे छुटकारा पाना चाहिए। दोष दूसरे किसी का नहीं, मेरा ही है। भगवान महावीर कहते हैं-आत्म-ज्ञानी पण्डित को ऊँची-नीची किसी भी स्थिति में न हर्षित होना चाहिए, न कुपित। (२) मुझ पर जो दुःख आ पड़ा है, इससे अनेक गुणा दुःख दूसरे अनेकों पर आया दिखाई देता है। उनकी अपेक्षा तो मेरा दुःख किसी बिसात में नहीं है। संस्कृत भाषा में कहावत है-“दुःखे दुःखाधिकं पश्य।" अर्थात् अपने पर दुःख आ पड़े तो अपने से अधिक दुःखी को देखो, तो तुम्हें अपना दुःख अधिक नहीं लगेगा। उस दुःख को प्रसन्नतापूर्वक सहकर. निर्जरा कर लोगे। (३) मैं आ पड़े हुए दुःख को मन पर लूँगा, तभी तो मुझे दुःखी करेगा न? मैं अपने दुःख को मन पर ही नहीं लाऊँगा। मैं उसे बिलकुल हलके रूप में लूँगा। नीतिकार का कहना है-दुःख निवारण की दवा यही है कि उस दुःख का बार-बार चिन्तन न करे। (४) मैंने पापकर्म तो इतने किये हैं कि उनकी अपेक्षा से मझे दुःखरूप में सजा मिली है, वह बहुत थोड़ी है। मुझे अपने पापकर्मों के फलस्वरूप कैंसर की एक ही गाँठ हुई है, जबकि मेरे पाप के अनुपात में मुझे होनी चाहिए थीं सात-सात कैंसर की गाँठें; क्योंकि मेरे द्वारा जवानी में किये हुए कामवासना के पाप, व्यवसाय में विश्वासघात, मिलावट आदि के पाप तो अत्यन्त भयानक कोटि के थे। आज उन्हें याद करता हूँ तो मुझे अपनी शैतानी पर धिक्कार के भाव आते हैं। (५) आये हुए दुःख या आपत्ति के समय मुझे माता कुन्ती के द्वारा भगवान से माँगे हुए वे शब्द याद करने चाहिए-"विपदः सन्तु नः शाश्वत्।"-हम पर सदैव विपत्तियाँ आती रहें, ताकि हम भगवान को न भूलें और विपत्तियों को समभाव से सहने पर हमारी आत्मा में निहित शक्तियाँ प्रकट हों।२ अहंकारवश जीने वाले ये पापकर्म के प्रति निःशंक लोग सामान्य बेसमझ अदूरदर्शी व्यक्ति अथवा बड़े-बड़े सत्ताधीश, धनपति, राजनीतिज्ञ, योद्धा अथवा प्रसिद्ध भ्रष्ट शासक या पदाधिकारी निर्भय, निश्चिन्त १. तम्हा पंडिए नो हरिसे, नो कुप्पे। -आचारांग- १/२/३ २. (क) 'देवाधिदेव- कर्मदर्शन' (पं. मुनि श्री चन्द्रशेखरविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. ४७ (ख) भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदुःखं नानुचिन्तयेत् ।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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