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ॐ विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है. ® ३२१ *
से विमुक्त होने का उपाय बताया है-“हे पुरुषार्थी मानव ! अपने आप का ही निग्रह कर। स्वयं के निग्रह से ही तू दुःख से मुक्त हो सकता है।" इस उपाय का अनुप्रेक्षण करते हुए दुःखद मानी जाने वाली परिस्थितियों से स्वयं को पृथक्, असंग मानकर, शान्ति और समाधिपूर्वक अपने आप का निग्रह कर लेता है। समभावपूर्वक सह लेता है। वह अनुप्रेक्षा करता है-सभी परिस्थितियाँ परिवर्तनशील हैं, आत्मा से 'पर' हैं और अनित्य हैं। वे आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकतीं, बशर्ते कि वह राग-द्वेष या प्रियता-अप्रियता का भाव न लाकर समभाव से सह ले। इस सहिष्णुता से उसकी आत्म-शक्ति तो बढ़ेगी ही, वह प्रतिकूल परिस्थिति भी उसकी आत्मोन्नति का साधन बनेगी, साथ ही उसकी ज्ञाता-द्रष्टा बने रहने की क्षमता भी बढ़ेगी। इस प्रकार वह आत्म-निग्रह उसे दुःख को सुख में परिवर्तित करके दुःख मुक्त करेगा, कर्मनिर्जरा होने से भावी दुःखद कर्मफल से भी बचेगा। यह आत्म-शुद्धि आत्म-मैत्री स्थापित करने या कायम रखने में सक्षम होगी।
जो भी परिस्थिति प्राप्त है, उसी का सदुपयोग कर आगे बढ़ना है - सुख-दुःख का कारण पर को, यानी किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति आदि को मान लेने पर अनुकूल सुखद मानी हुई परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति आदि के प्रति रागभाव और प्रतिकूल व दुःखद मानी हुई परिस्थिति आदि के प्रति द्वेषभाव होने लगता है। राग-द्वेष और मोह के अन्धकार में व्यक्ति दूसरे के गुण-दोष का यथार्थ निर्णय नहीं कर पाता। दूसरों की अनुकूल परिस्थिति आदि से ईर्ष्या, द्वेष करने लग जाता है। यह आत्मा के प्रति द्रोह या शत्रुता है। आत्म-मैत्री का साधक अनुकूल मानी जाने वाली परिस्थिति प्राप्त न होने पर निराश होकर बैठा नहीं रहता और न ही अनुकूल परिस्थिति वाले से ईर्ष्या करता है और न अनुकूल परिस्थिति की प्राप्ति के लिए न्याय, नीति, धर्म आदि को ताक में रखकर सतत प्रयत्न करता है, किन्तु उसे जैसी परिस्थिति प्राप्त है, उसी का सदुपयोग करता है। जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है-“सद्-असद् विवेकशाली पण्डित ! जो बीत गया सो बीत गया। शेष रहे जीवन को ही लक्ष्य में रखते हुए प्राप्त अवसर को परख। समय का मूल्य समझा"२ प्रतिकूल परिस्थिति भी कई बार उसके सत्प्रयत्नों से अनुकूल बन जाती है।३. १. . (क) 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भावांश ग्रहण, पृ. २४-२५ .... (ख) पुरिसा ! अत्ताणमेवाऽभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि।
-आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. ३, सू. ४०६ २. अणभिक्कतं च वयं संपेहाए, खणं जाणाहि पंडिए। -वही, श्रु. १, अ. २, उ. २ ३. 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भावांश ग्रहण, पृ. २५