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ॐ ३२० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
स्वाधीन है। ऐसी अनुप्रेक्षा करने से दुःख निवारण करने में आने वाले प्रमाद, आलस्य, उपेक्षा, अरुचि आदि को मिटाकर व्यक्ति उत्साह और साहस के साथ दुःख से मुक्ति पाने का आध्यात्मिक पुरुषार्थ करता है, जो उसकी कर्मनिर्जरा का कारण बनता है। इससे आत्मा को शत्रु बनने से बचाकर मित्र बनाने में सफल होता है। ___ जब व्यक्ति दुःख का कारण किसी अन्य सजीव-निर्जीव पदार्थ को नहीं मानता, तब उसके जीवन में अपने शरीरादि आत्म-बाह्य पदार्थों के प्रति मोह तथा दूसरे निमित्तों के प्रति द्वेषभाव मिट जाता है। फलतः राग-द्वेष के कारण जो आत्म-मैत्री का दीपक बुझने वाला था, उसे वह प्रज्वलित रख पाता है। आत्म-मैत्री स्थापित होने से आत्मा में समता, क्षमता, निर्भयता, मृदुता, ऋजुता आदि गुणों का अनायास ही प्रादुर्भाव हो जाता है।
जब व्यक्ति अपने पर आये हुए किसी भी दुःख का कारण दूसरे को मान लेता है तो वह दुःख के मूल कारणों की खोज न करके पराश्रित, दीन-हीन होकर क्षुब्ध एवं निराश मन से दुःख भोगता रहता है, दुःख से मुक्त होने में वह स्वयं को असमर्थ मान लेता है। जिससे अपने आत्म-स्वरूप व आत्म-गुणों तथा आत्म-शक्तियों को वह भूल जाता है, यही अपनी आत्मा के प्रति शत्रुना है। इसके विपरीत, जब वह अपने पर आये हुए दुःख का कारण किसी दूसरे को न मानकर स्वयं को मानता है, तब दुःख के मूल 'दोषों' की खोज की ओर उसका ध्यान जाता है और स्वयं प्रबुद्ध होकर वह उन दोषों का त्याग करने में समर्थ हो जाता है। यह आत्मा के साथ मैत्री का उपक्रम है। विपरीत परिस्थितियों में भी आत्म-मैत्री कायम रखने का उपाय
किसी आकस्मिक दुर्घटना, विपत्ति या दुष्परिस्थिति का हो जाना पूर्वकृत दुष्कर्मों का फल है, इसे टाल नहीं सकता। यदि वे पूर्वकृत दुष्कर्म जब सत्ता (अबाधाकाल) में शान्त पड़े थे, तभी बाह्य सुख की मोह निद्रा में न पड़कर व्यक्ति बाह्याभ्यन्तर तप, त्याग, प्रत्याख्यान, परीषह-विजय, कषाय-विजय, कामनाओं पर संयम आदि साधनाओं के द्वारा उन पूर्वकृत दुष्कर्मों का संवर-निर्जरा-उदीरणा आदि के द्वारा संक्रमण या उवर्तन कर लेता या क्षय कर लेता तो उन कर्मों को उदय में आने का और इतना कटु परिणाम भुगवाने का अवसर नहीं मिलता। फिर भी मान लो, पूर्वकृत दुष्कर्म उदय में आ गए और उनके कारण दुर्घटना, इष्ट-वियोग, विपत्ति या दुष्परिस्थिति आ पड़ी तो उस पर किसी का वश नहीं चलता, यह जानकर विवेकशील आत्म-मित्र साधक उस भयंकरतम परिस्थिति में भी स्वयं आर्तध्यान नहीं करता, दुःखी नहीं होता, अपितु भगवान महावीर ने दुःख