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ॐ विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है * ३१९ ॐ
में व्यथित-चिन्तित होगा। सुख का भोग भी बुरा है, क्योंकि वह दुःख को बुलाता है और दुःख का भोग भी बुरा लगता है, पर अविवेकी और अज्ञानग्रस्त को वह बरबस भोगना पड़ता है। यों सारी अमूल्य जिन्दगी सुख-दुःखों के भोग में बिताकर अपनी आत्मा की सर्वस्व हानि करना है।
आत्मा शत्रु और मित्र : स्व-दोषों के कारण निष्कर्ष यह है कि अज्ञानी–अविवेकी प्राणी अपने पूर्वोक्त दोषों के फलस्वरूप दुःखी होता है, यही उसका अपनी आत्मा के प्रति अपना अमित्र (शत्रु) होना है
और पूर्वोक्त दोषों को दूर करके समभाव, माध्यस्थ्य या ज्ञाता-द्रष्टापन में स्थित होना, पूर्वकृत कर्मों का दुःखरूप फल प्राप्त होने पर समभाव से सहन कर लेना अपनी आत्मा के प्रति अपना मित्र होना है।'
दुःख का कारण स्वयं को मानने से दुःख-मैत्री इसी प्रकार दुःख का कारण अन्य को न मानकर स्वयं (आत्मा) को मानने से व्यक्ति दुःख के साथ मैत्री करके, दुःख की निमित्त कारणभूत घटना, परिस्थिति या वस्तु अथवा व्यक्ति के रहने पर भी दुःख का अनुभव नहीं करता। वह दीर्घदृष्टि से सोचता है-दुःख आए हैं लो आने दो, इनका स्वागत है। इनके आने पर मेरी ज्ञानदृष्टि का विकास है। मुझे इन्होंने कर्मनिर्जरा करने का मौका दिया है। ये दुःख न आते तो मेरी आत्मा को. कायक्लेशादि तप या परीषह-सहन करने के कर्मनिरोधरूप संवर का लाभ कैसे मिलता? ये दुःख भी सदा रहने वाले नहीं हैं। रात्रि के बाद दिन की तरह दुःख के बाद सुख अवश्य आता है। अभी शीघ्र न आए तो भी कोई हर्ज नहीं, मुझे संवर-निर्जरारूप धर्म पर दृढ़ रहकर आत्मा को निर्मल, शुद्ध करने का अवसर अनायास ही मिला है। वैसे देखें तो सारा प्राणिजगत् इस बाह्य सुख-दुःख के झूले में झूलता रहता है। मुझे सांसारिक सुख-दुःखानुभव से पर-आत्मा के स्वाधीन अव्याबाध सुख के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। इस प्रकार दुःख-मैत्री आत्म-मैत्री का कारण बनेगी।
अपने दुःखों का कारण स्व को मानिए अपने दुःख का कारण अन्य को न मानकर स्व (आत्मा) को मानने से व्यक्ति में आत्म-विश्वास जागता है, आत्मा दुःख का निवारण करने में स्वयं समर्थ और
१. 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भावांश ग्रहण, पृ. २२