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________________ ३१८ कर्मविज्ञान : भाग ६ को अन्य कृत मानने वाले के प्रयत्न दुःख सुख-दुःख का कारण अन्य को मानने की भ्रान्ति का शिकार होकर अधिकांश मानव दुःखों के मूल कारण पर प्रहार न करके दुःखरूप फल से या तो बचने की कोशिश करते हैं या फिर कर्मफलस्वरूप प्राप्त हुए दुःख को बाह्य उपायों से दूर करने का प्रयत्न करते हैं। ये दोनों प्रयत्न ऐसे ही हैं, जैसे कोई बबूल के काँटों से बचने के लिए उन काँटों को थोड़ा-थोड़ा तोड़ता रहे, बबूल की जड़ को न उखाड़े । जड़ को न उखाड़ने से बबूल के काँटे तोड़ते रहने पर भी नये-नये काँटे आते जाएँगे। फलतः काँटों से छुटकारा कदापि नहीं हो सकेगा। इसी प्रकार विविध दुःखों के मूल कारणों - मिथ्यात्व, अज्ञान, भ्रान्ति, प्रमाद, कषाय- नोकषाय, अविरति तथा राग-द्वेषयुक्त मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को दूर न करके केवल वर्तमान के कतिपय दुःखों को विविध साधनों से दूर करने का प्रयास करता है, परन्तु जब तक दुःख के कारणभूत कर्म और कर्म के कारणों को नहीं मिटाता है, तब तक नये-नये दुःख बराबर आते जायेंगे, वह व्यक्ति अज्ञानतावश नये-नये दुःख बीजरूप राग-द्वेष व कर्मों को बाँधता रहेगा। इस प्रकार दुःखों से छुटकारा कभी नहीं होगा । सुख-दुःखानुभव अपने दोषों के कारण होता है आशय यह है कि व्यक्ति को जो भी सुख या दुःख का अनुभव होता है, वह किसी वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि अन्यान्य कारणों से नहीं होता, बल्कि अपनी ही किसी अज्ञानता, मिथ्यादृष्टि, विपरीत मान्यता, पर-पदार्थाधीनता आदि दोषों के कारण होता है। भगवान से जब पूछा गया - दुःख किसने किया है ? उन्होंने कहा- ''स्वयं आत्मा ने अपनी ही भूल से दुःख किया है।"" ये दोष किसी दूसरे की देन नहीं है, अपितु व्यक्ति की अपनी ही भूल, भ्रान्ति या प्रमत्तता का परिणाम है। ऐसी भूलें मनुष्य ने स्वयं ही की हैं, उन्हें मिटाने का दायित्व भी स्वयं का है। अतः न तो किसी दूसरे (पर-पदार्थ) ने भूलें की हैं और न ही दूसरा कोई अपनी भूल को मिटा सकता है। भगवान महावीर ने भी यही कहा है- " जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि नहीं रखता है, वह 'स्व' से अन्यत्र रमता भी नहीं है । " २ पूर्वोक्त स्व - दोष मिट जाने से बात-बात में इन क्षणिक, नाशवान् और पर-पदार्थाश्रित सुख-दुःखों का जो अनुभव होता है, वह नहीं होगा । व्यक्ति न तो सुख में आसक्त होगा और न दुःख १. दुक्खे केण कडे ? जीवेण कडे पमाणं । २. जे अणण्णदंसी से अणण्णा मे । - स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. २ - आचारांग, श्रु. १, अ. २, उ. ६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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