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* ३२४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® दुष्कर्म करने वाला मगधेश्वर कोणिक देव प्रकोप से भस्म हो गया। अपने भोग-विलास में मस्त और दूसरों पर अन्याय-अत्याचार करके जीने वाले अबोधिग्रस्त सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्री जैसे छह खण्ड के साम्राज्य के मान्धाता बुरी मौत मरकर नरक के मेहमान बने। सच है जो दूसरों का परिभव (तिरस्कार) करता है, वह दीर्घकाल तक संसाररूपी अटवी में भटकता है। ...
दुर्योधन जैसा अन्यायी अनीतिमान् व्यक्ति दुःखद वेदना से तड़फ-तड़फकर मरा। रावण जैसा अहंकारी और कामवासना से अतृप्त मानव युद्ध में भूलुण्ठित हो गया। कैसे-कैसे खूख्वार तथा निःशंक होकर पापकर्म करने वाले वे लोग !२ उन्होंने पापकर्म करते समय उनके दुःखद फल पाने का विचार तक नहीं किया, निःशंक और अहंकारी होकर पापकर्म करने में रत रहे। उनका पश्चात्ताप भी नहीं किया परन्तु उनकी मौत कितनी दुःखद हुई ! इस पर गहराई से चिन्तन किया जाय तो दुःखों के साथ मैत्री करने वाला अपने अनचाहे दुःख के निवारण और मनचाहे सुख को पाने के लिए दूसरों को दुःख नहीं देता, विपत्ति, त्रास, पीड़ा और व्यथा में नहीं डालता ! 'आचारांग नियुक्ति' में कहा गया है जो लोग अपने सुख की खोज में रहते हैं, वे दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं।३ .. . ___ऐसे मान्धाताओं को विपत्ति या स्वयं पर आ पड़े हुए दुःखद फल के समय चेत जाना चाहिए था कि अब हमारे द्वारा किये हुए अशुभ कर्मों का उदय या विपाककाल शुरू हो गया है। इसलिए हमें समभाव, शान्ति और धैर्य के साथ उसे सहन कर लेना चाहिए। परन्तु उन्हें ऐसे समय तीव्र मोहकर्म के उदय के कारण सद्बुद्धि आये कहाँ से? परन्तु उस समय वे अपने अभिमान में छके रहते हैं कि हमें पापकर्मों का दण्ड देने वाला कौन है ? हिरण्यकश्यपु अपने आप को सर्वसत्ताधीश ईश्वरतुल्य मानता था ! प्रह्लाद जैसे प्रिय पुत्र को अपने से विपरीत शुद्ध विचार प्रकट करते हुए रोककर उसने उसकी हत्या कराने के कितने भयंकर उपाय आजमाए थे? आखिर उसे स्वयं को क्रूर काल के पंजे में फंसना पड़ा। अतः कैसी भी प्रतिकूलता हो, अनचाही परिस्थिति हो, मनचाहा कार्य न होता हो या किसी अशुभ कर्म के उदय के कारण दुःख या पीड़ा आ पड़ी हो, उस समय दुःख-मैत्री का साधक अनुप्रेक्षापूर्वक चिन्तन करे और उस दुःखद मानी जाने वाली परिस्थिति, पीड़ा या विपत्ति के समय आर्तध्यान और रौद्रध्यान न करे तो उसकी वह पीड़ा या
-सूत्रकृतांग १/२/२/१
१. जो परिभवइ परे जणं, संसारे परिवत्तई महं। २. 'देवाधिदेवर्नु कर्मदर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ४६ ३. (क) वही, पृ. ४७
(ख) सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति।
-आचारांग नियुक्ति ९४