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________________ Arrierrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrror विविध दुःखों के साथ मैत्री आत्म-मैत्री है आत्मा को मित्र बनाने के बजाय शत्रु क्यों बना लेता है ? मानव-जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। उन उतार-चढ़ावों में आत्मा के साथ तन, मन, वचन, बुद्धि, हृदय, इन्द्रियाँ आदि उपकरण रहते हैं। अनादिकालीन कर्म-संस्कारों के कारण मनुष्य संसार की भूलभुलैया में पड़कर अपना आपा भूल जाता है। मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ? मुझे ऐसा संयोग क्यों मिला है ? किस कारण से मेरी ऐसी स्थिति हुई है? मेरा लक्ष्य क्या होना चाहिए? इन बातों से अनभिज्ञ रहकर वह अपनी आत्मा को बार-बार दुष्कर्मों के दलदल में फँसा देता है। यही कारण है कि पिछले प्रकरण में बताये अनुसार वह आत्मा को मित्र बनाने के बजाय अपना शत्रु बना लेता है। पापकर्मों का बन्ध करके फिर दुर्गतियों में भटकता है। अगर वह विविध दुःखों और संकटों के समय अपनी आत्मा को, आत्म-गुणों और स्व-भाव को न भूलकर आत्म-मैत्री को बरकरार रखता रहे तो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकता है, अव्याबाध सुख को प्राप्त कर सकता है। __ ऐसी स्थिति में आत्म-मैत्री कैसे हो सकती है ? ____ कोई तर्क कर सकता है कि जीव (आत्मा) के पूर्वबद्ध अशुभ कर्मोदय के कारण जब उस पर रोग, बुढ़ापा, मृत्यु, संकट, विपत्ति आदि दुःख आ पड़ते हैं, उस समय आत्मा के साथ मैत्री कैसे रह सकती है? क्योंकि रोगादि दुःखों के आ पड़ने पर मनुष्य का मन आर्तध्यान में चला जाता है। वह रोता है, चिल्लाता है, विलाप करता है। भगवान, देवी-देव, कर्म तथा निमित्त आदि को कोसता है। उस समय उसे पीड़ा, व्यथा, आर्ति और कष्ट की ही प्रायः अनुभूति होती है। कई व्यक्ति शारीरिक या मानसिक व्याधि असह्य होने पर आत्महत्या करने को उतारू हो जाते हैं। ऐसे असह्य कष्ट, पीड़ा, रोग, संकट आदि आ पड़ने पर व्यक्ति शान्ति और समता में नहीं रह पाता। ऐसी स्थिति में इन दुःखों के साथ मैत्री कैसे हो सकती है? और दुःखों के साथ मैत्री होने पर ही आत्म-मैत्री रह सकती है। अतः
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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