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________________ ॐ ३१६ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * आध्यात्मिक क्षेत्र में ऐसा कौन-सा ठोस उपाय है, जिसे अपनाने पर विविध दुःखों के साथ मैत्री रह सके? चिकित्सा क्षेत्र में दवा पीड़ा शान्त करने का अस्थायी उपचार है चिकित्सा के क्षेत्र में तो आजकल असह्य दर्द, पीड़ा या बेचैनी होने पर उसे शान्त या स्वल्प करने के लिए कई प्रकार के पीड़ाशामक इंजेक्शन, गोलियाँ या . केप्सूल दिये जाते हैं। परन्तु देखा जाता है, उनसे अमुक समय दर्द शान्त रहता है, . फिर पहले की तरह दर्द उठ जाता है।' दुःख क्यों आते हैं ? उन्हें कौन देता है ? ___ पहले तो यह सोचना अनिवार्य है कि दुःख क्यों आते हैं ? कारण के बिना कार्य नहीं होता ! दुःखों को पैदा करने वाला या अकस्मात् दुःख देने वाला कोई भगवान, देवी-देव, ईश्वर या दूसरा मानव नहीं, दुःख देने वाली या विविध दुःख पैदा करने वाली अपनी आत्मा ही है, जिसने पूर्व-जन्म या जन्मों में अथवा इस जन्म में कोई न कोई अशुभ कर्म बाँधा होगा। उसी स्वकृत कर्मापराधरूप वृक्ष के ये दुःखरूप फल हैं। ‘सामायिक पाठ' में कहा है-आत्मा ने जी पहले स्वयं कर्म किये हैं, उन्हीं का शुभाशुभ फल वह पाता है। कर्मफल यदि दूसरे के द्वारा किया हुआ पाता है तो स्वकृत कर्म निष्फल हो जाते हैं। स्वाश्रित सुख-दुःख को पराश्रित मानने से दुःख बढ़ता है व्यक्ति जब सुख-दुःख का कारण स्वयं (आत्मा) को न मानकर किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति या अवस्था को मान लेता है, तब उसका सुख-दुःख पराश्रित हो जाता है। फलतः व्यक्ति पराधीन हो जाता है। पराधीनता तो अपने आप में भी दुःख है। दुःख का कारण दूसरे को मान लेने का नतीजा यह होता है कि जिस दुःख को वह स्वयं ज्ञानबल से, त्याग, तप, सहिष्णुता से सदा के लिए मिटा सकता है अथवा सुखरूप में परिणत कर सकता है, उसे मिटाने या सुखरूप में परिवर्तित करने में स्वयं को पराधीन, पर-पदार्थ के आश्रित मान लेना है। फलतः दू:ख दूर होने के बजाय दुःख के समय आर्ति, पीड़ा आदि आर्तध्यान के १. 'जीवन की पोथी' से भाव ग्रहण, पृ. २५ २. (क) स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा॥ . -सामायिक पाठ (अमितगतिसरि), श्लो. २५ (ख) आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्। -चाणक्यनीति
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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