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* ३१४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ .
और किसी न किसी अभाव से युक्त होती है। अपूर्णता में सुख की कल्पना करना और आत्मा के वास्तविक स्वाधीन सुख से वंचित रहना भविष्य में दुःख का कारण बनता है। इन दोनों के साथ मैत्री दासता का ही प्रतीक होती है। ऐसी मैत्री आत्मा की सहन-शक्ति, सम्यग्ज्ञान-दर्शन की शक्ति को विस्मृत करा देती है। इसलिए विनाशी से तथाकथित मैत्री-सम्बन्ध विच्छेद करना ही बन्धनरहित होना है। बन्धनरहित होना ही कर्ममुक्ति है, निर्जरा है।
इसीलिए भगवान महावीर ने कहा-“सव्वमप्पे जिए जिय।''-एकमात्र आत्म-विकारों को जीत लेने पर मन को जीत लिया जाता है। ये सब आत्मा की पर्याय हैं, इन पर विजय प्राप्त कर लेने पर आत्म-विजय करना ही आत्मा के साथ सच्ची मैत्री है। वही शाश्वत सुख के मार्ग की ओर ले जाती है।'
१. (क) 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' (कन्हैयालाल लोढ़ा) से भावांश ग्रहण, पृ. २३-२४ (ख) जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियगा तं पुव्विं परिहरंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिहरेज्जा।
-आचारांग १/२/१/१९७ (ग) वही, श्रु. १, अ. २, उ. ५, सू. ३११ (घ) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ९, गा. ३६