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________________ आत्म- मैत्री से मुक्ति का ठोस कारण ४ ३११ जन्म तक बाँधे हुए शुभाशुभ सभी कर्मों को समभाव से भोगकर सर्वथा क्षय कर दिया और उनकी आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परम शुद्ध तथा जन्म-मरणादि सदा के लिए सर्वथा रहित, सर्वदुःखों से रहित हो गई । यह है प्रत्येक मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्ति के समय आत्मा को शत्रु बनाने की अपेक्षा मित्र बनाने का ज्वलन्त उदाहरण ! 9 आत्मा को मित्र बनाने हेतु अपनी दृष्टि आदि बदलनी है आत्म- मैत्री में अपने आप को बदलना अनिवार्य है। अपनी समग्र दृष्टि, वृत्ति या बुद्धि ही बदलनी है। किसी ने किसी व्यक्ति का अनिष्ट किया, उस समय प्रमाद, कषाय और अज्ञानवश वह सारा का सारा दोष उसी पर मढ़ देता है और उस अनिष्ट के निमित्त बनने वाले को शत्रु मान लेता है। वह व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं कि उसने मेरे ही किसी पूर्वबद्ध अशुभ कर्म के उदय में आने पर समभाव से भोगकर निर्जरा (कर्मक्षय) कराने में, परम्परा से आत्म-शुद्धि करने में मेरी सहायता की है। मुझे अवसर दिया है कर्मक्षय करके आत्म-शुद्धि का । अतएव वह तो मेरा परम मित्र हुआ, शत्रु कहाँ रहा ? मेरी आत्मा ही पूर्व-भव में किसी अशुभ कर्म का बन्ध करके मेरी शत्रु बनी हुई थी। इस प्रकार के अनिष्ट, दुःख या संकट मेरे ही अपने किसी अपराध या दोष के कारण आया है। मैंने ही कर्म बाँधा है, मुझे ही भोगना है। समभाव से भोगकर आत्मा पर लगे कर्ममल को धो डालने से मैं भूतपूर्व शत्रु (विकारी) आत्मा को शुद्ध ( आंशिक शुद्ध-निर्विकार) आत्मा बना लूँगा । २ आत्म- मैत्री का रहस्यार्थ वह यह है आत्म- मैत्री का रहस्यार्थ । जो आत्म- मैत्री के इस सत्य (परमार्थ) को जान लेता है, हृदयंगम कर लेता है और अनुभव की आँच में तपा लेता है, सजीव-निर्जीव किसी भी पर-पदार्थ पर अथवा कषाय, राग-द्वेष-मोह आदि विभावों पर दोषारोपण नहीं करता। बहुत-से लोग कर्म को शत्रु कहते हैं, परन्तु गहराई से देखें तो कर्म शत्रु नहीं, कर्म से संयोग सम्बन्ध जोड़ने वाली आत्मा शत्रु है । इसीलिए भगवान महावीर ने कहा - आत्म - बाह्य किन्हीं सजीव-निर्जीव पर भावों या विभावों को रागादिवश मित्र बनाने या उन पर दोषारोपण करके द्वेषादिवश शत्रु मानने की अपेक्षा अपनी दुष्प्रस्थित आत्मा को सुप्रस्थित करके उसे अपनी मित्र बना लें। हमारे मन-मस्तिष्क में किसी दूसरे के प्रति शत्रुता का भाव रहे ही नहीं । १. देखें-अन्तकृद्दशांगसूत्र में गजसुकुमार मुनि की सर्वकर्ममुक्ति का वर्णन २. 'सोया मन जग जाये' से भावांश ग्रहण, पृ. २४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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