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________________ ३१२ कर्मविज्ञान : भाग ६ अपनी आत्मा, जो अपने ही अशुभ कर्मों के कारण शत्रु बनी हुई है, उसे ही सुमार्ग पर चलाकर (सुप्रस्थित करके) मित्र बना लें। ऐसा करने से सहज ही संवर और निर्जरा की उपलब्धि होगी। यही कारण है कि भगवान महावीर ने आत्म - बाह्य मित्रों की खोज के बदले अपनी आत्मा को ही अपना मित्र बनाने पर जोर देते हुए कहा - " हे पुरुषार्थी मानव ! तू ही तेरा मित्र है, बाहर के मित्र की तलाश क्यों कर रहा है ?” २ इसका फलितार्थ है-आत्मार्थी और मुमुक्षु मानव को एकमात्र अपनी आत्मा को मित्र बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। सभी सजीव-निर्जीव पर - पदार्थ या विभाव आत्म- बाह्य हैं, उनके साथ मैत्री कैसी ? आध्यात्मिक दृष्टि से आत्म - बाह्य सजीव-निर्जीव पदार्थों या विभावों के साथ मैत्री प्रायः प्रेय, स्वार्थ, मोह या रागादिमूलक होती है। वह शुभाशुभ कर्मक्षयकारक, कर्मानव-निरोधक अथवा कर्मनिर्जराकारक प्रायः नहीं होती । आध्यात्मिक दृष्टि से बाहर के मित्र मनुष्य जातीय ही नहीं, पशु-पक्षी जातीय तथा वनस्पति पृथ्वी आदि सर्व प्राणिजातीय भी हो सकते हैं। कभी आत्मा से भिन्न विजातीय पर-पदार्थ, जैसे-खेत, घर, बंगला, दुकान, ग्राम, नगर, प्रान्त, देश, राष्ट्र आदि भी हो सकते हैं। इतना ही नहीं कदाचित् आत्मा के वैभाविकभावक्रोध आदि कषाय, राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या, कलह पर-परिवाद, अभ्याख्यान, पंचेन्द्रिय विषयासक्ति, शुभाशुभ कर्म-पुद्गल आदि भी तथाकथित बाह्य मित्र हो सकते हैं। इन सब बाह्य मित्रों का आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं होता, प्रायः रागादिमूलक कर्मोपाधिक संयोगसम्बन्ध होता है, जिसे आत्मा. ही स्वयं जोड़ती है। आत्मा से मैत्री सम्बन्ध ही इष्ट इन और ऐसे पर भावों और विभावों से राग-द्वेषयुक्त संयोग - सम्बन्ध जोड़ने पर आत्मा इष्ट-वियोग और अनिष्ट-योग के समय बार-बार स्वयं दुःख का वेदन करती है। अतः ऐसी संयोग- सम्बन्धजनित परभाव-विभाव- मैत्री उसके लिए अनिष्टकारक, कर्मबन्धकारक, दुःखानुभूतिदायक, आत्मा को मलिन बनाने वाली, १. अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टओ सुप्पट्टओ । २. पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? -उत्तराध्ययन, अ. २०, गा. ३७ - आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ३, सू. ४०४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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