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* ३१० 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ *
गीता की दृष्टि में आत्मा ही आत्मा का बन्धु और शत्रु है
'भगवद्गीता' में भी कहा गया है-अपनी आत्मा का उद्धार मनुष्य अपनी आत्मा के द्वारा करे, अपनी आत्मा का अवसाद (अधःपतन) कदापि न करे। वस्तुतः आत्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। जिसने (अपने पराक्रम से) आत्मा को जीत लिया, उसी की आत्मा उसका बन्धु है और जिसने (प्रमादग्रस्त होकर) अपने आप को नहीं जीता, वही अपने प्रति शत्रु के समान बरतता है; अर्थात् उसकी आत्मा ही उसका शत्रु हो जाता है।' गजसुकुमार मुनि ने आत्मा को शत्रु होने से बचाकर मित्र बनाया
वास्तव में, आत्म-विजेता अर्थात् आत्मा को शरीरादि पर-भावों और विभावों से हटाकर स्वभाव में स्थित करने वाली-स्व-वश करने वाली महान आत्मा ही उसे अपना मित्र बना लेती है। वह शत्रुभाव में जाने वाली आत्मा को तुरन्त रोककर मित्रभाव में ले आती है। आत्म-स्वभाव में स्थित, भेदविज्ञान-परायण महामुनि गजसुकुमार ने आत्मा को स्वभाव में दृढ़ता से प्रतिष्ठित करके उसे परम मित्र बना लिया था। आशय यह है कि जब सोमल ब्राह्मण ने उन्हें मरणान्त कष्ट देने हेतु उन कायोत्सर्गस्थ मुनि के मुण्डित मस्तक पर गीली मिट्टी से पाल बाँधकर धधकते अंगारे उड़ेल दिये थे, तब सोमल ब्राह्मण के प्रति वैरभाव का प्रसंग था, किन्तु गजसुकुमार मुनि ने अपनी आत्मा को सोमल ब्राह्मण के प्रति वैरभाव लाकर शत्रु नहीं बनाया, अपितु पूर्वबद्ध घोर पापकर्मों का क्षय करने में सहायक मानकर सोमल के प्रति मैत्रीभाव अपनाया, इस प्रकार अपनी आत्मा को मैत्रीभाव में सुप्रतिष्ठित किया। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने शत्रुभाव की ओर जाने की संभावना वाली आत्मा को तीव्र आत्म-भावों में रमण करते हुए मैत्रीभाव में सुप्रतिष्ठित किया। भगवान महावीर की भाषा में-आत्मा को उस विकट मरणासन्न प्रसंग पर शत्रु बनाने के बदले मित्र बनाया। यही आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतना है और यही आत्मा को और अशुद्ध बनाने के बदले तीव्रता से कर्मनिर्जरा (महानिर्जरा) करके पूर्ण शुद्ध अवस्था में स्थापित करना है। ऐसा करके महामुनि गजसुकुमार ने अपने ९९ लाख भवों पूर्व बाँधे हुए घोर पापकर्मों को तथा इस
१. उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥५॥ बन्धुरात्माऽऽत्मनस्तस्य, येनात्मैवाऽऽत्मना जितः। अनात्मस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥६॥
-भगवद्गीता, अ. ६, श्लो. ५-६