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________________ * ३०८ कर्मविज्ञान : भाग ६ (१) हिंसा आदि की जाते समय जैसी पीड़ा, दुःख और बेचैनी की अनुभूति तुझे होती है, वैसी ही उस जीव को होगी, जिसे तू मारना आदि चाहता है । (२) हिंसा आदि करके तू दूसरे की नहीं, स्वयं अपनी ही आत्मा की हिंसा करता है। अर्थात् तेरी यह हिंसादि वृत्ति एक प्रकार से तेरी ही आत्म-हिंसा है । ऐसा करके तू दूसरे के साथ वैर-परम्परा तो बढ़ाता है, आत्मा को भी तू मित्र के बदले शत्रु बनाकर घोर पापकर्मों का फल भुगतवाएगा। सभी आत्माएँ स्वरूप की दृष्टि से समान यही कारण है कि भगवान महावीर ने अद्वैत की भाषा में कहा - आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा का अपना शत्रु है। अध्यात्मदृष्टि से जब हम मैत्री का विचार करते हैं तो अपनी आत्मा के सिवाय दूसरा कोई होता ही नहीं । अथवा द्वैत का यानी दूसरा पराया है, ऐसा विचार किया जाये तो वहाँ मैत्री हो नहीं सकती । वैर-विरोध मन ही मन उठता रहेगा । 'स्थानांगसूत्र' में इसी दृष्टि से कहा गया है- “एगे आया।” - यानी सब आत्माएँ स्वरूप की दृष्टि से एक हैं- समान हैं। अध्यात्म का यह दृष्टिकोण द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है । द्रव्यार्थिकनय में वस्तु की समग्रता का स्वीकार होता है ।' द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि यानी समग्रता की दृष्टि से विचार करते हैं तो आत्मा आत्मा है, वह सिर्फ आत्मा है, इसके सिवाय कुछ नहीं। आत्मा केवल आत्मा है, ऐसा मानने पर प्रतिफलित होता है - आत्मा न तो शत्रु है, न मित्र ! आत्मा न तो अच्छा है, प्रिय है और न बुरा या अप्रिय । किन्तु पर्यायार्थिकनय का दृष्टिकोण है - वस्तु में समुत्पन्न होने वाले नये-नये रूपों का स्वीकार करना। आत्मा में एक पर्याय पैदा होता है, तब वह शत्रु बन जाती है, दूसरा पर्याय पैदा होता है, तब वही आत्मा मित्र बन जाती है। अच्छी-बुरी, मनोज्ञ-अमनोज्ञ ये सब पर्याय हैं। इसी पर्यायदृष्टि के कारण तो आत्मा के ८ प्रकार बताये हैं- द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा । ये सब पर्याय आत्मा के स्वरूप नहीं हैं, न ही उसका अस्तित्व है। आत्मा तो अपने मूलरूप में जैसी है, वैसी ही रहती है। ये सब पर्याय हैं, अवस्थाएँ हैं- आत्मा की। ये बदलती हैं। इन्हें पुरुषार्थ से बदला जा सकता है। यह अधिकार आत्मा के अपने हाथ में है । वह स्वयं अपना भाग्यविधाता है। दूसरा कोई हमारी आत्मा को अच्छा या बुरा, मित्र या अमित्र नहीं बना सकता। हम ही 9. (क) अप्पा मित्तममित्तं च । (ख) 'सोया मन जग जाये' से भाव ग्रहण, पृ. ११५-११६ (ग) स्थानांगसूत्र, स्था. १, उ. १, सू. १ - उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २०, गा. ३६-३७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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