________________
४. ३०४ कर्मविज्ञान : भाग ६
चित्त का आकाश निर्मल नहीं होता, इस कारण वह संकल्प से डिग जाता है । किन्तु सहिष्णुता और क्षमता बद्धमूल हो जाये तो चित्त की निर्मलता खण्डित नहीं होती ।
यद्यपि किसी महापुरुष के जीवन से किसी मार्गदर्शक सद्गुरु से या प्रज्ञा जाग्रत करके सन्मार्ग दिखाने वाले शास्त्र के उपदेश से क्षमता की प्रेरणा प्राप्त होने पर भी मनुष्य झटपट वैर - विरोध को शान्त करने और मैत्री का मार्ग पकड़ने को तैयार नहीं होता, जब तक कि उसे यह प्रतीति नहीं होती कि मैत्री के मार्ग को पकड़ने पर प्रत्यक्ष ही संवर और दूसरे व्यक्ति आत्मौपम्यभाव से देखने से निर्जरा का लाभ होता है और जीव भविष्य में कर्मों से मुक्त हो जाता है। इसलिए उसमें धैर्य का जाग्रत होना आवश्यक है। धैर्य जाग्रत होने पर कदाचित् पूर्वबद्ध अशुभ कर्मोदयवश उसे विरोधी या अपराधी व्यक्ति के साथ मैत्रीभाव को अपनाने से उलटा परिणाम आने लगे, वह व्यक्ति एक बार तो उसकी मैत्री की भाषा को न समझकर उलटा हो जाये, परन्तु साधक में धैर्य होगा तो वह मैत्री के प्रयोग को सहसा छोड़ेगा नहीं। वह अन्त तक विचलित नहीं होगा अपने मैत्रीभाव से और साथ ही वह जब देखता है विरोधी मेरे द्वारा धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने के बाद अनुकूल हो गया है, तब उसकी प्रतीति दृढ़ हो जाती है । परन्तु इतना होने पर भी यदि उस कार्य की कुछ लोग अतिशयोक्तिपूर्वक प्रशंसा करने लगें अथवा कुछ लोग उसके कार्य को कायरता का रूप देकर उसे कायर, बुजदिल या डरपोक कहकर निन्दा करने लगें, उस समय उसका अपने मैत्रीभाव के प्रयोग के प्रति अहंकार, आसक्ति अथवा घृणा, अरुचि या निराशा आने की बहुत सम्भावना रहती है। ऐसे समय में यदि वह गाम्भीर्य गुण से अभ्यस्त होगा तो अपनी प्रशंसा या निन्दा से कदापि विचलित नहीं होगा। वह अपना सत्कार्य किये चला जाता है। वह सोचता है - निन्दा और प्रशंसा तो क्षणिक है, उससे शुद्ध आत्मा का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं है। अतः वह अपनी मस्ती से प्रसन्नतापूर्वक अपने सत्कार्य के प्रति श्रद्धा-भक्ति, विनय और सत्कार के साथ आगे बढ़ता जाता है । परन्तु गम्भीरता के साथ दाक्षिण्य न हो तो जिसके प्रति मैत्री का प्रयोग किया जायेगा, वह व्यक्ति कुछ दिन तक तो उसके अनुकूल रहे, यह सम्भव है, लेकिन बाद में सम्भव है, उसके दाक्षिण्य के प्रति कृतज्ञता का भाव भूलकर कृतघ्न हो जाये या उसके प्रतिकूल हो जाये। इसलिए दाक्षिण्य गुण की मैत्रीसाधक में बहुत आवश्यकता है। दाक्षिण्य गुण का अर्थ यों तो दक्षता है, किन्तु उसका फलितार्थ उदारता है मन की, तन की और साधन की। जिस व्यक्ति के प्रति मैत्री का प्रयोग किया गया, उसकी पात्रता, योग्यता और वास्तविक अपेक्षा जानने की दक्षता (चातुर्य) हो और साथ ही तदनुरूप उदारता हो तो व्यक्ति सदा के लिए उसका बन जाता है, वह कभी अकृतज्ञ नहीं होता।