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________________ ॐ आत्म-मैत्री से मुक्ति का ठोस कारण ® ३०३ 8 दृष्टि से देखें और इसके पक्ष के लोग भी मुझे और मेरे पक्ष के लोगों को मित्रता की दृष्टि से देखें। आप लोग इससे सहमत हैं न? सभी ने स्वीकृतिसूचक सिर हिलाया। इस प्रकार अवैर से वैर शान्त होने का यह ज्वलन्त उदाहरण है। ___ मैत्रीभाव में प्रवृत्त होने के लिए पाँच चिन्तनसूत्र वैर-विरोध से विरत (विरक्त) होने और मैत्रीभाव में प्रवृत्त होने के लिए दो दृष्टियों से विचार करना चाहिए-एक है नैतिक दृष्टि और दूसरी है आध्यात्मिक दृष्टि। नैतिक दृष्टि से इस तथ्य पर विचार करने के लिए पाँच चिन्तनसूत्र जगत् के हितचिन्तकों ने प्रस्तुत किये हैं-(१) विवेक, (२) क्षमता, (३) धैर्य, (४) गम्भीरता, और (५) दाक्षिण्य (दक्षतापूर्वक उदारता)। पाँचों चिन्तनसूत्रों पर विश्लेषण विवेक व्यक्ति के जीवन का सच्चा साथी है। विवेक के द्वारा व्यक्ति शत्रुता और मैत्री, हित और अहित, कर्तव्य और अकर्तव्य का झटपट निर्णय कर सकता है। विवेकदृष्टि खुल जाने पर व्यक्ति वैर-विरोध से हानि और मैत्री से लाभ का चिन्तन-विश्लेषण करके जाग्रत हो सकता है परन्तु विवेक हो जाने पर भी व्यक्ति अपने पूर्वाग्रह, हठाग्रह, परम्पराओं, रूढ़ कुसंस्कारों आदि से बँधा होने पर वैर-विरोध को हानिकारक जानते हुए भी सहसा छोड़ नहीं पाता। इसलिए ऐसे वैर-विरोध के प्रसंगों को टालने और उससे विरत होने के लिए मनुष्य में 'क्षमता' आनी चाहिए। क्षमता आने पर व्यक्ति रूढ़ कुसंस्कारों, वंश-परम्परागत कुरीतियों, पूर्वाग्रहों आदि की कोई परवाह न करके मैत्री का हितकारक रास्ता अपना लेता है। यह क्षमता प्राप्त करने के लिए उसे मैत्री के राजमार्ग पर चलने वाले महान् पुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए अथवा किसी मार्गदर्शक हितैषी गुरु या बुजुर्गों से सीधा मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। क्षमता का अर्थ है-शक्ति अथवा सहिष्णुता। वैर-विरोध का जहाँ भी प्रसंग आये, दूसरे लोग भी विरोध के लिए उकसाने लगें, बदला लेने के लिए प्रेरित करें, ऐसे समय में मनुष्य में क्षमता या सहिष्णुता हो तो उस प्रसंग को हल्के रूप में लेकर टाल देता है और मैत्री का हाथ बढ़ाकर उसका हृदय बदल देता है। क्षमता के बिना इस मनोमालिन्य अथवा कालुष्य का शीघ्र अन्त लाना कठिन होता है। मनुष्य प्रातःकाल संकल्प करता है-“मैं किसी के साथ वैरभाव नहीं लाऊँगा, मैत्रीभाव का ही आचरण करूँगा।" परन्तु परिस्थिति आते ही वह मन पर वैरभाव ले आता है। १. 'जातक कथा' से संक्षिप्त
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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