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________________ . * ३०२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ दिये। दीर्घायुकुमार की आँखें माता-पिता की दुर्दशा देख आँसू बरसा रही थीं। रात्रि के घोर सन्नाटे में चौकीदार जब सो रहे थे, तो उसने माता-पिता के अंगों को समेटकर एक चिता पर रखा और अन्त्येष्टि क्रिया की। इसके बाद दीर्घायुकुमार बदला लेने की भावना से ब्रह्मदत्त राजा का विश्वासपात्र सारथी बन गया। ___ एक दिन राजा ब्रह्मदत्त सैर करने हेतु रथ में बैठा, सारथी ने रथ को इतना तेज दौड़ाया कि राजा के अंगरक्षक बहुत पीछे रह गये। वे दोनों एक घोर जंगल में जा पहुँचे। राजा ने रथ को रोकने का आदेश दिया। एक. सघन वृक्ष के नीचे दीर्घायु ने रथ को रोका। एक वस्त्र बिछाया। राजा को बिठाया। राजा को नींद आने लगी, इसलिए दीर्घायु ने अपनी जंघा पर उसका मस्तक रखा। राजा निद्राधीन हो गया। दीर्घायु ने आज बदला लेने का अच्छा अवसर देख ब्रह्मदत्त राजा. को मारने के लिए तलवार निकाली। किन्तु पिताजी के अन्तिम शिक्षासूत्रों को याद कर तलवार वापस म्यान में कर दी। इस प्रकार तीन बार तलवार निकाली और पिता की शिक्षा याद आते ही वापस म्यान में कर दी। तीसरी बार राजा एकदम हड़बड़ाकर उठा। दीर्घायु ने पूछा तो बोला-"मुझे बहुत बुरा स्वप्न आया कि मेरा शत्रु मुझे मारने के लिए उद्यत है।" दीर्घायु ने अपना परिचय छिपाना उचित न समझकर सारी बात स्पष्ट कर दी कि मैं ही आपका शत्रु-पुत्र हूँ। मैंने तीन बार आपको मारने के लिए तलवार निकाली थी, किन्तु पिताजी के अन्तिम शिक्षासूत्रों को याद करके मैंने तलवार म्यान में कर दी। अब आप क्या चाहते हैं-वैर-परम्परा बढ़ाना या वैर को शान्त करके मित्रता करना? राजा ने बहुत कुछ सोचकर कहा-“वैर-परम्परा बढ़ाने में अशान्ति है, इसलिए हम दोनों आज से सूर्यसाक्षी से परस्पर मित्र बन जाते हैं।' दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया और पुराने वैर को सदा के लिए भूल जाने का वादा किया। रथ में बैठकर दोनों मैत्रीभाव से संकल्पबद्ध होकर काशी आये। ब्रह्मदत्त राजा ने राजसभा में सभासदों से पूछा-“अगर मेरा शत्रु यहाँ आ जाये तो उसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए?" इस पर किसी ने कहा-“उसे मार ही देना चाहिए।" किसी ने कहा-"उसे देश से निर्वासित कर देना चाहिए।' किसी ने पूछा-“आपका शत्रु है ही कौन? आपने तो कौशल-नरेश को शत्रु मानकर उसे मरवा ही दिया था।" राजा ने कहा-"शत्रु तो नहीं है। परन्तु शत्रु-पुत्र था, उसकी शत्रुता को नष्ट करने के लिए हम दोनों आज आजीवन मैत्रीभाव के संकल्प से आबद्ध हो गये हैं। उसके माता-पिता बड़े शान्तमूर्ति और मैत्रीभाव-सम्पन्न थे, हमें उनकी हत्या के लिए बहुत पश्चात्ताप है। उन्हीं के अन्तिम चार शिक्षासूत्रों की बदौलत उनका यह दीर्घायुकुमार पुत्र मेरे साथ मैत्रीभाव से संकल्पबद्ध हुआ है। आज से मेरे पक्ष के कोई भी व्यक्ति इसे शत्रुता की दृष्टि से न देखकर मित्रता की
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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