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________________ * आत्म-मैत्री से मुक्ति का ठोस कारण ॐ ३०१ ॐ उसके समक्ष चुगली खाई। कहने लगा-“महाराज ! क्या आपको पता है, आपके शत्रु पूर्व कौशलराज और रानी आपकी ही नगरी के बाहर रह रहे हैं। हो सकता है, वे लोगों को भड़काकर काशी देश पर चढ़ाई करके आपके राज्य पर कब्जा कर लें।" काशीराज का अहंकार-सर्प यह सुनकर फुफकार उठा-"हूँ ! मेरे राज्य में, मेरा शत्रु रहता है ! मैंने इन्हें खत्म नहीं किया इसी कारण इनका हौसला बढ़ गया है।'' काशीराज ने तुरन्त ही राजसेवकों को आदेश दिया कि “राजा और रानी दोनों को बंदी बनाकर मेरे सामने हाजिर करो।" आदेश के अनुसार दोनों को बंदी बनाकर उपस्थित किया गया। उन्होंने कौशलराज से अपने अपराध के बारे में पूछा तो उसकी त्यौरियाँ चढ़ गईं। गुस्से से तमतमाते हुए कहा-"अपराध पूछ रहे हो ! मेरे राज्य में न रहने के आदेश का तुमने उल्लंघन किया और तुम अन्दर ही अन्दर प्रजा में विद्रोह फैलाकर मेरे राज्य पर कब्जा करने की तैयारी कर रहे हो ! कितना बड़ा अपराध है यह !" कौशलराज द्वारा सफाई दिये जाने पर भी क्रूर काशीराज ने एक न सुनी और तुरन्त मृत्युदण्ड का आदेश देते हुए कहा-“इन्हें वध्य चिह्नों से अलंकृत करके सारी नगरी में घुमाकर वधस्थल पर ले जाओ और जल्लादों से कहकर इन दोनों के अंग के टुकड़े-टुकड़े करवाकर फेंक दो, परन्तु खबरदार, कोई भी इनकी अन्त्येष्टि क्रिया न कर सके, इसके लिए वहाँ कड़ा पहरा बिठा दो।" . . . राजा-रानी दोनों को वध्य चिह्नों से अलंकृत करके नगर के बीच से उनके अपराध की घोषणा करते हुए ले जा रहे थे। संयोगवश उसी दिन उनका युवक पुत्र दीर्घायुकुमार अपने माता-पिता से मिलने आया हुआ था। परन्तु झोंपड़ी में माता-पिता को न पाकर वह लोगों से पूछताछ करके इस जुलूस में काशी के अपार जनसमूह को देखकर शामिल हो गया। अपने माता-पिता की यह अवदशा देखकर वह अत्यन्त व्यथित और उद्विग्न हो गया। कौशलराज ने भी पुत्र को आये देख सोचा-यदि पुत्र को भगवान बुद्ध की शिक्षा नहीं मिली तो वह काशीराज के प्रति वैरभाव रखकर इन्हें मारने का प्रयत्न करेगा। इस प्रकार वैर-परम्परा बढ़ेगी। हमें तो अपने किसी पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों का फल मिल गया है, किन्तु इस अशुभ कर्मबन्ध से बचे, इसके लिए उन्होंने सांकेतिक भाषा में पुत्र को अन्तिम शिक्षा देने के बहाने कहा-“तू दूर मत देखना, तू नजदीक भी मत देखना, वैर से वैर शान्त नहीं होता, अवैर से वैर शान्त होता है।" इन चार शिक्षासूत्रों का तीन बार जोर-जोर से उच्चारण किया। दीर्घायुकुमार बुद्धिमान था, वह पिताजी के आशय को समझ गया। परन्तु उदास मन से उस अन्तिम यात्रा में चल रहा। वध्य स्थल पर जब राजा-रानी पहुंचे तो सब लोगों को राजपुरुषों ने वहाँ से हटा दिया और जल्लादों ने काशीराज के आदेश से उनके टुकड़े-टुकड़े करके इधर-उधर फेंक
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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