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________________ ॐ आत्म-मैत्री से मुक्ति का ठोस कारण ® २९९ ® अपने बच्चे को और एक राजपुत्र को देती। प्रतिदिन के क्रमानुसार वह चिड़िया उन स्वादिष्ट और पौष्टिक फलों को लेने वन में गई हुई थीं। चिड़िया के बच्चे के साथ खेलते-खेलते पता नहीं राजकुमार के मन में क्या खुराफात सूझी कि उसने चिड़िया के बच्चे का गला मसोस दिया। बच्चा मर गया। चिड़िया जब फल लेकर आई तो उसने देखा कि बच्चा मरा पड़ा है। उसे दुःख हुआ। मन में विचार किया कि मेरे बच्चे को राजकुमार के सिवाय किसी ने नहीं मारा है। उसके मन में इस अपराध की कठोर प्रतिक्रिया हुई। उसमें इसका प्रतिशोध (बदला) लेने का तीव्र दुर्भाव जागा। चिड़िया ने झपट्टा भर राजकुमार की दोनों आँखें फोड़ डालीं। राजकुमार अन्धा हो गया। चिड़िया ने राजकुमार के अपराध का बदला ले लिया। वैर बँध गया। मैत्री से राजकुमार शुभ योग (पुण्य) कमा सकता था, परन्तु उसने घोर अशुभ कर्मबन्ध कर लिया। राजा ने आकर देखा, राजकुमार के अन्धे होने का रहस्य नहीं समझ सका। चिड़िया ने ही स्पष्टीकरण किया-"राजकुमार ने मेरे बच्चे को मार डाला, अतः मैंने उसकी दोनों आँखें फोड़ दीं। मैंने प्रतिशोध ले लिया। अब मैं यहाँ नहीं रह सकती, अतः जा रही हूँ।" राजा ने उसे बहुत समझाया, महल में ही रहने को कहा। परन्तु चिड़िया ने कहा-“यहाँ मेरे न रहने का कारण है-मैंने बेशक बदला ले लिया, लेकिन मेरे मन से अपराधजनित वैर निकलेगा नहीं। फिर वैर-परम्परा चलेगी। यह मैं नहीं चाहती। मैं अन्यत्र जा रही हूँ।"१ सचमुच, वैर-परम्परा कई-कई जन्मों तक चलती है। ___ वैरभाव के उद्गम स्थान : कषाय और नोकषाय अतः इन छह कारणों पर विचार करो। इनके सिवाय और भी अनेक कारण हो सकते हैं-वैरभाव उत्पन्न होने के। मूल में-कषाय और नोकषायवृत्ति ही वैर-विरोध का उद्गम स्थान है। और वे ही अठारह प्रकार के पापस्थानों अथवा पापकर्मों के बन्धन के कारण हैं। जिनसे इस जन्म में भी जीव संक्लिष्ट, दुःखी, अशात्त और भयभीत, चिन्तित एवं विषादमग्न रहता है। इसलिए प्रत्येक धर्म के · महापुरुषों ने एक स्वर से मानव-जाति को यही सन्देश दिया कि वैर-विरोध को - आगे मत बढ़ाओ, उसे वहीं समाप्त कर दो। भगवान महावीर ने कहा-"भय और वैर से उपरत (निवृत्त) बनो।"२ वैर से नहीं, अवैर (मैत्रीभाव) से ही वैर शान्त होता है - तथागत बुद्ध ने भी इसी तथ्य के समर्थन में कहा १. 'सोया मन जग जाये' में उद्धृत महाभारत के आख्यान का सारांश ग्रहण २. भय-वेराओ उवरए। -उत्तराध्ययन, अ. ६, गा.७
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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