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________________ ॐ २९२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ 8 अधार्मिक हैं तथा असहमत और उद्दण्ड हैं, हितैषी व्यक्ति को भी बदनाम करने की. चेष्टा कर सकते हैं, ऐसे व्यक्ति चाहे अपने ही परिवार, सम्प्रदाय, जाति या समाज के हों, उन्हें पपोलने से अथवा उनके प्रति राग या मोह रखकर उनके उक्त दोषों पर लीपापोती करके गुण के रूप में प्रगट करने से, उनके दोषों, कुकृत्यों या पापों को अधिक बढ़ावा, पोषण या समर्थन मिलता है और उनके दोषों-अपराधों का जाहिर में या एकान्त में भी भण्डाफोड़ करने से भी पूर्वोक्त रूप से द्वेषभाव बढ़ता है; ऐसी स्थिति में समभावी साधक को मौन रखना ही हितावह है, राग-द्वेष और कर्मबन्ध से बचने का सुमार्ग है। माध्यस्थ्यभाव की सार्थकता ___ माध्यस्थ्यभावना की सार्थकता इसी में है कि समभावी साधक ऐसे विपरीत वृत्ति वाले व्यक्ति के प्रति उपेक्षा धारण करे। न तो वह उसके प्रति राग, मोह, आसिक्त, मूर्छा, ममता में फँसे और न ही वह द्वेष, द्रोह, रोष, पूर्वाग्रह, दोषदृष्टि, घृणा, ईर्ष्या या वैर-विरोध के प्रवाह में बहे, न ही उसकी बदनामी या निन्दा करे। उसे गाली, अपशब्द, डाँट-फटकार, ताड़न-तर्जन का प्रयोग तो कतई न करे। बल्कि समतायोगी साधक उसे देखकर मन ही मन कुढ़ना, कोसना, उस पर आक्षेप, दोषारोपण या छींटाकशी करना भी माध्यस्थ्यभावना को दूषित करना है। इसी प्रकार ऐसे लोगों के मिथ्या विचार, प्रचार और आचार को झूठमूठ प्रोत्साहन देना भी विषमतावर्द्धक है। ‘अष्टक' प्रकरण में इसी तथ्य को उजागर करते हुए कहा गया है-“मध्यस्थ-साधक को अपनी अन्तरात्मा से विरोधी अथवा प्रतूिकल तत्त्वों या व्यक्तियों को कोसना या उपालम्भ देना छोड़कर अनुपालम्भ (तटस्थ या समत्व) स्थिति में रहना चाहिए। ऐसे लोगों के प्रति कुतर्क के कंकरों को फेंकने की बालचेष्टा भी छोड़ देनी चाहिए।"१ दूसरों को गलत मान बैठना भी माध्यस्थ्यभावना में बाधक ___ इसी प्रकार दूसरों की नीयत को सहसा खराब मान बैठना, उनके प्रत्येक व्यवहार और कार्य में द्वेष और दुर्भाव की गन्ध पाना अथवा सद्भावनावश कोई भी व्यक्ति अपनी अपेक्षा से प्रतिकूल विचार या मत रख सकता है, इतने मात्र से उसे विरोधी, द्वेषी या शत्रु मान बैठना या गलतफहमी से किसी के विषय में पूर्वाग्रहवश उसे गलत मान बैठना, दूसरे धर्म, सम्प्रदाय, जाति या प्रान्त आदि के व्यक्तियों को निकृष्ट, पापी या हीन मान लेना भी माध्यस्थ्यभावना में वाधक है। १. (क) 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ७४-७५ (ख) स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तराऽऽत्मना। कुतर्क-कर्कट-क्षेपैस्त्यज्यतां बालचापलम्॥ -अष्टक१६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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