SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ® २९३ 8 माध्यस्थ्यभावना का विवेकसूत्र : घृणा पाप से हो, पापी से नहीं भारतीय मनीषियों ने माध्यस्थ्यभावना को स्थिर रखने के लिये एक विवेकसूत्र दिया-“घृणा पाप से हो, पापी से नहीं।" इसके विपरीत कई लोग कहते हैं-“शठे शाठ्यं समाचारेत्।"-दुष्ट के प्रति दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए। पापी, दुष्ट, आततायी, अत्याचारी आदि को तो देखते ही मार डालना चाहिए, ताकि वह पाप, दुष्टता या अत्याचार न कर सके। परन्तु यह मार्ग हिंसा, वैर और द्वेष की परम्परा को बढ़ाने वाला खतरनाक, आत्म-विकासघातक है। प्रतिशोध और आक्रमणप्रत्याक्रमण के कुचक्र से अनेक जन्मों तक वैर-परम्परा का अन्त नहीं आता। अतः माध्यस्थ्यदृष्टि-परायण इस खतरनाक पथ को न अपनाए, न ही पापी, अत्याचारी और दुष्ट को देखकर उसके प्रति घृणा, द्वेष या प्रतिशोध करे। ___ कई बार मनुष्य परिस्थितियों के वश कुमार्गगामी, पापकर्मी और दुराचारी बन जाता है। परन्तु आज का पतित, पापी, दुराचारी और दुष्ट व्यक्ति कल सभ्य, धर्मात्मा, सदाचारी और सज्जन भी बन सकता है। मनुष्य की आत्मा में परमात्मा (शुद्ध आत्मा) सोया हुआ है, वह मूल में तो पवित्र और शुद्ध है, उस पर कर्मों का आवरण आ गया है। मानव-जन्म उसे उच्चस्तरीय पुण्यराशि के फलस्वरूप मिला है। अतः माध्यस्थ्यभावना को सार्थक करने के लिए विरोधी आचार-विचार वाले व्यक्ति के प्रति भी सद्भावना, धैर्य, समभाव और राग-द्वेषरहित तटस्थ रहने का प्रयत्न करना चाहिए। संत विनोबा, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, लोकसेवक रविशंकर महाराज आदि द्वारा खूख्वार डाकुओं के प्रति सद्भावना एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार से उनके जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन आया, उन्होंने आत्म-समर्पण करके डाकू जीवन की वृत्ति-प्रवृत्तियों को छोड़ दिया और सभ्य नागरिक बनकर जीवन यापन करने लगे। .. · माध्यस्थ्यगुणी-साधक सुधारने में विफल होने पर क्षुब्ध न हो ... कई साधक पापकर्मी या कुमार्गगामी व्यक्तियों को धर्म-पथ पर लाने के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते हैं, परन्तु जब उन लोगों को सुधारने के सभी प्रयत्न विफल हो जाते हैं, तब वे उन पर एकदम क्रुद्ध, क्षुब्ध या उद्विग्न हो जाते हैं, उन्हें अपशब्द, गाली या अभद्र वचन कहने लगते हैं। यह माध्यस्थ्यदृष्टि-सम्पन्न साधक की करारी हार है, दुर्बलता है, मध्यस्थता का गला घोंटना है। किसी पर अपने विचार और आचार को जबर्दस्ती थोपना हिंसा है, बलात्कार है। उसे तीर्थंकरों के 'जहासुहं' के सूत्र को ध्यान में रखना चाहिए। १. 'समतायोग' से भावांश ग्रहण, पृ. ८२-८३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy