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ॐ मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ® २८५ 8
द्वारा की गई सच्ची गुण-प्रशंसा और प्रोत्साहन भरी उक्ति से सामने वाले व्यक्ति में अपने गुणों की अनभिज्ञता दूर हो जाती है, उसमें छाई हुई निराशा, हीनभावना या निरुत्साहता खत्म हो जाती है और उसमें अपनी क्षमताओं, सद्गुणों, शक्तियों को बढ़ाने-पनपाने का उत्साह जाग्रत होता है, सत्कार्यक्षमता बढ़ती है, उनके मुरझाए हुए मन भी हरे-भरे हो जाते हैं। भगवान महावीर ने चाण्डाल, पापी, सर्प, पतित तथा दास कहलाने वाले अनेक व्यक्तियों को उनमें सुषुप्त सद्गुणों को बढ़ावा देकर सज्जन एवं साधुपुरुष बना दिया। रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक-सम युवक को परखकर प्रसिद्ध संन्यासी विवेकानन्द बना दिया। श्रीराम के प्रोत्साहन वानरजातीय सामान्य व्यक्ति लंका-विजय में समर्थ हुए। समदर्शी महात्मा गांधी जी ने हरिजनों का उनमें निहित सद्गुणों और विशेषताओं का भान कराकर उच्चस्तरीय मानव बना दिया। .
__ प्रमोदभावना में सर्वाधिक बाधक : दोषदृष्टि प्रमोदभावना में सर्वाधिक बाधक है-दोषदृष्टि। दोषदृष्टि वाला मानव निन्दा, चुगली, ईर्ष्या, द्वेष, छिद्रान्वेषण का शिकार होकर पापकर्मों का ही भार बढ़ाता है। फलतः वह दूसरों के प्रति ऐसी दोषदृष्टि से अपनी मानसिक शान्ति खो बैठता है। दूसरों को अपना शत्रु बना लेता है। स्वयं भी अपना और निमित्तों का शत्रु बन जाता है। उसे सारी दुनियाँ बुराइयों से भरी हुई दिखती है। दूसरों के दोष देख-देखकर वह दीन-हीन, दुःखी बना रहता है। इस प्रकार अपनी आत्म-शक्तियों का स्वयं ह्रास कर लेता है, क्योंकि दोषदृष्टि मानव गुणों की अपेक्षा दोषों को ही खोजता है, गुणों पर उसकी दृष्टि ठहरती ही नहीं है। अगर मनुष्य गुणदृष्टि-परायण प्रमोदी बन जाय तो संसार के अधिकांश लोग उसके अपने आत्मीय बन जाते हैं।
. प्रमोदभावना के अधिकारी की अर्हताएँ __जो हर आत्मा को अपने समान मानता है, प्रत्येक आत्मा में अनन्त चतुष्टय
का सुषुप्त अस्तित्व और उन्हें प्रकट करने का अधिकार मानता है, वही आत्मा दूसरे का अभ्युदय व गुण-विकास देखकर ईर्ष्यालु नहीं बनता, उसी आत्मा में दूसरे में अभिव्यक्त गुणों की श्रेष्ठता को स्वीकारने की भावना जागती है, वही अपनी हीनभावना को त्यागकर तदनुरूप गुण-प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता है। वही प्रसन्नचेता पुरुष प्रमोदभावना द्वारा सर्वकर्मों से मुक्त हो पाता है।
१. 'समतायोग' से भावांश ग्रहण, पृ. ५०-५१