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* २८६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
करुणा मैत्रीभावना का ही विशिष्ट सक्रिय रूप है ___ करुणा जीवन की अमृतसरिता है। वह मैत्रीभावना का विशिष्ट सक्रिय रूप है। वैसे तो आत्मौपम्यभाव के साधक की समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभावना रहती हैं, किन्तु जो विशेष रूप से दीन-हीन, दुःखित, पीडित, व्यथित, शोषित एवं पददलित हैं, उनके प्रति करुणा, सेवा, सहानुभूति और अनुकम्पा की भावना जागती है, तब वह उनके दुःखों को अपना दुःख समझकर निःस्वार्थ और निष्कांक्षभाव से उनके दुःख-निवारण की मंगलभावना करता है और तदनुसार सात्त्विक पुरुषार्थ भी। इस दृष्टि से मैत्रीभावना का ही विशिष्ट रूप करुणाभावना है। करुणाभावना का लक्षण
'अष्टक' प्रकरण में करुणाभावना का लक्षण इस प्रकार किया गया है-"दीनदुःखियों, पीड़ितों, भयभीतों तथा प्राणों (जीवन) की याचना करने वालों पर उपकारपरायण बुद्धि होना करुणाभाव कहलाता है।'' इसका सामान्य लक्षण बताया गया है-“दूसरों का दुःख-निवारण करने की भावना उत्पन्न होना करुणा है।" . मानवता के नाते भी करुणापूर्ण हृदय होना अनिवार्य । - अगर किसी दुःखित, पीड़ित और व्यथित प्राणी को देखकर हृदय करुणार्द्र या अनुकम्पामय नहीं होता है, तो समझना चाहिए, उसका हृदय सूखा रेगिस्तान है। कष्ट से पीड़ितों के स्वर और विलाप को सुनकर यदि सक्षम, सशक्त और स्वस्थ मनुष्य कठोर हृदय बनकर पड़ा रहे, निष्क्रिय और निस्पन्द होकर पड़ा रहे, सहृदयता और सहानुभूतिपूर्वक कुछ भी चिन्तन न करे, वह व्यक्ति सम्यग्दृष्टित्व से तो दूर ही है, मानवता से भी दूर है। मानवता के नाते साधारण व्यक्ति का भी यह कर्तव्य हो जाता है कि यदि वह सक्षम, सशक्त, स्वस्थ और विचारशील है, तो उन दुःखार्त्त जीवों के प्रति सहृदयतापूर्वक दुःख-निवारण का विचार करे, दूरस्थ और असम्पन्न हो तो भी शुभ भावना द्वारा निम्नोक्त प्रकार से उनका दुःख-निवारण होने में निमित्त बने
____ “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्॥" . -इस संसार में सभी प्राणी सुखी हों, सभी निरोग (स्वस्थ) हों, सभी अपना कल्याण जानें-देखें, कोई भी व्यक्ति (मन-वचन-काया से) दुःखी न हो। १. (क) दीनेज्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् ।
उपकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते॥ -अष्टक प्रकरण (हरिभद्रसूरि) (ख) परदुःख-प्रहाणेच्छा करुणा। (ग) “समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ५९