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२८४ कर्मविज्ञान : भाग ६
अतिरिक्त प्रमोदभावना का साधक गुणदृष्टि रखकर धर्मरुचि अनगार की करुणा, भगवान महावीर के उग्र तप, शालिभद्र के पूर्व-जन्म का दान, धन्ना का वैराग्य, गजसुकुमार मुनि की भेदविज्ञानदृष्टि, अर्जुन मुनि की क्षमा, श्रीराम का समभाव, श्रीकृष्ण के अनासक्त कर्मयोग आदि प्रशस्त गुणों का चिन्तन करता है तो तदनुरूप आचरण करने की प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं आत्म-शक्ति मिलती है। वास्तव में प्रमोदभावना का विशिष्ट अंग गुणदृष्टि या गुणग्राहकता है। इसी भावना में यदि कोई एकाग्र होकर अपनी मनःशक्ति केन्द्रित कर दे या अपनी भावना को सुदृढ़ करता रहे तो वह एक दिन सद्गुणों की मूर्ति बन जाता है, उसकी मानसिक शक्तियाँ बढ़ जाती हैं, वैर-विरोध, ईर्ष्या, छल, द्वेष आदि दुर्गुण धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं, उसकी सुख-सम्पत्ति बढ़ जाती है ।
गुणग्राही व्यक्ति का हृदय : लोहचुम्बक के समान
जैसे लोहचुम्बक के पास अन्य चीजों के साथ लोहे की कोई छोटी-सी चीज़ पड़ी होती है तो उसे वह खींच लेता है, उसी तरह गुणग्राहक प्रमोददृष्टि सम्पन्न साधक दूसरे व्यक्ति में अज्ञान के कण, अहंकार और क्रोधादि के कीटाणु होंगे तो वह उनमें से एक को भी नहीं अपनाएगा, वह उसमें से केवल गुण के कणों को अपनाकर अपनी ओर खींच लेगा। गुणग्राही व्यक्ति का हृदय लोहचुम्बक - सा होता है । '
गुणानुरागी नहीं है तो सब जप, तप आदि निरर्थक हैं
मनुष्य कितना ही जप-तप कर ले, शास्त्र- स्वाध्याय कर ले, विभिन्न परीषह या कष्ट सह ले, किन्तु गुणानुरागी नहीं बनता है तो उसका यह सब कष्टकारक तप-जप या कष्ट-सहन व्यर्थ होता है, क्योंकि उसकी दृष्टि सम्यक् नहीं बनी है, वह हर तथ्य को सम्यक्रूप से परिगृहीत नहीं करता। दूसरे के सद्गुण देखकर प्रसन्न न होना, अनायास ही प्राप्त आत्म-कल्याण के अवसर को खोना है। महान् आत्माओं के गुण-स्मरण से अनायास ही पुण्य-लाभ उपार्जित हो जाता है। गुणान्वेषी दृष्टि विकसित होने पर अनेक आध्यात्मिक लाभ
दृष्टिविकसित होने पर व्यक्ति दूसरे के सद्गुणों से प्रेरणा लेकर अपने में निहित गुणावगुणों की भलीभाँति जाँच-पड़ताल कर सकता है। गुणवान् व्यक्तियों के गुणों से हुए विकास का चित्र उसके सामने स्पष्ट हो जाता है, इससे वह भी विकास की ओर गुणी बनकर दौड़ लगा सकता है। प्रमोदभावना द्वारा गुणग्राहक दृष्टि विकसित हो जाने पर सबसे बड़ा लाभ यह है कि गुणग्राहक व्यक्ति
१. 'समतायोग' से भावांश ग्रहण, पृ. ५४-५५