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________________ ॐ मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव * २८३ * अपनी साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के अनुसार बोले-“गांधी जी सज्जन हैं, निखालिस दिल हैं, स्वतंत्रता के लिये अहिंसक ढंग से जूझ रहे हैं, परन्तु इस्लाम की दृष्टि से तो वे खराब से खराब व्यक्ति (काफिर) हैं।" यह प्रमोदभावना नहीं है। बाहर से प्रशंसा और अन्तर में दोषदृष्टि प्रमोदभावना नहीं निष्कर्ष यह है कि समाज के लिहाज या भय से या बुरा न बनने के डर से किसी गुणवान् की प्रशंसा की जाय, परन्तु अन्तर में उसके प्रति दोषदृष्टि हो अथवा छिद्रान्वेषिता हो, तेजोद्वेष हो, ईर्ष्या और द्वेष का विष भरा हो, वहाँ प्रमोदभावना नहीं हो सकती। इसी प्रकार जिनके दिल कषायों से कलुषित होते हैं, वे किसी प्रभावशाली गुणवान्, क्षमतावान् साधु-साध्वी की अथवा समाज-सेवक या अन्य सम्प्रदाय के श्रावक-श्राविका की बाहर से तो खुलकर प्रशंसा के पुल बाँध देंगे, किन्तु जहाँ दाव लगेगा, वहाँ उसके दोष प्रगट करने वाला विषैला वचन-बाण छोड़ देंगे। ऐसे लोगों में प्रमोदभावना टिक नहीं सकती। . __ गुणग्राहकता और चापलूसी में महान् अन्तर है .. और यह भी प्रमादभावना नहीं कही जा सकती कि किसी व्यक्ति में अपने पद, प्रतिष्ठा या अधिकार के अनुरूप गुण न होते हुए भी उसे रिझाने या उसे अनुकूल बनाकर रूप में ऐंठने अथवा अपने किसी स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए उसकी झूठी प्रशंसा, खुशामद या चापलूसी की जाय। गुणग्राहकता और चापलूसी में महान अन्तर है। गुणग्राहकता हृदय से समुद्भूत होती है, चापलूसी जीभ से। गुणग्राहकता जीवन का सच्चा ध्येय है, जबकि चापलूसी में स्वार्थसिद्धि का प्रयोजन है। पहली अभिनन्दनीय है, दूसरी निन्दनीय। पहली निःस्वार्थ समतावर्धिनी एवं आत्म-कल्याण में कारणभूत होती है, जबकि दूसरी परवंचनामयी तथा स्वार्थसाधिनी होती है। जो जिसके विशिष्ट गुणों का चिन्तन करता है, एक दिन वैसा बन पाता है एक आचार्य ने कहा-“यद् ध्यायति, तद् भवति।"-जो व्यक्ति जैसा चिन्तन करता है, वह वैसा ही बन जाता है। प्रमोदभावना के साधक की दृष्टि गुणों की ओर होती है। वह अपने से गुणों में अधिक महान् आत्माओं के तथा आत्म-विकास में आगे बढ़े हुए सत्पुरुषों के एवं किसी भी वीतराग प्रभु, जीवन्मुक्त या सिद्ध (मुक्त) परमात्मा का अथवा आदर्शगुणी पुरुष के उज्ज्वल गुणों का चिन्तन करता है, तो अभ्यास बढ़ जाने से उसमें भी वह गुण आ सकता है अथवा आगामी जन्म में भी वह प्रमोदभावना के कारण उस गुण की प्रतिमूर्ति बन सकता है। इसके १. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ४२-४३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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