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________________ ॐ २८२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® . प्रगति, उत्कर्ष और विकास देखकर उनके प्रति ईर्ष्या, तेजोद्वेष, दोषदृष्टि, असूया आदि न रखता हुआ, केवल उनके गुणों की प्रशंसा, अनुमोदना और गुणग्राहिता प्रगट करता है, प्रसन्न होता है। जैसे मेघगर्जना सुनकर और वर्षा के आगमन की सम्भावना देखकर मोर एकदम टहुकने लगते हैं, उसी प्रकार वीतराग पुरुषों, साधु-साध्वीजनों, धर्मात्मा पुरुषों, समाज के निष्ठावान एवं व्रतबद्ध जनसेवकों, श्रावकों, राष्ट्र के सेवाभावी नेताओं, सज्जनों एवं गुणीजनों को देखते ही उनके प्रति प्रसन्नता उमड़े, अपने से अधिक गुणवान्, क्षमतावान्, संयमी व्यक्तियों को देखते ही हृदय प्रसन्नता से झूम उठे, उनकी उन्नति देखकर चित्त में आल्हाद उत्पन्न हो, तभी समझना कि सही माने में प्रमोदभावना आई है। यह प्रमोदभावना नहीं : प्रमोदभावना का नाटक है अधिकांश व्यक्तियों की यह पूर्वाग्रहभरी आदत होती है कि वे अपने धर्म, सम्प्रदाय, जाति, कुल, देश, राष्ट्र या प्रान्त आदि से भिन्न अन्य सम्प्रदाय, पंथ आदि का कोई व्यक्ति चाहे जितना गुणवान, समभावी, विद्वान, सत्कार्य समर्थ सज्जन हो, उसके गुणों की ओर दृष्टिपात करके, केवल उसके दोष देखने, उससे ईर्ष्या करने और उसे अप्रतिष्ठित करने की दुर्भावना -उमड़ती है। ऐसा क्यों? इसलिए कि गुणान्वेषी दृष्टि या समभाव अथवा सम्यकप से ग्रहण करने की दृष्टि नहीं है। ऐसे व्यक्ति कदाचित् प्रमोदभावना का नाटक भले ही कर लें, उनके अन्तर्मन में साम्प्रदायिकता, प्रान्तीयता, जातीयता, 'राष्ट्रान्धता, पक्षान्धता का जहर भरा होता है। इसलिये उसके अन्तर में उस व्यक्ति के मणों से कोई प्रेरणा लेने, पुण्य वृद्धि करने या आदर करने की दृष्टि नहीं होती। प्रमोदभावना से दूर व्यक्ति का मानस . महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में जिन दिनों देशभर में स्वतंत्रता-संग्राम छिड़ा हुआ था, दो मुस्लिम भाई-मोहमद अली और शौकत अली गांधी जी से प्रभावित होकर स्वतंत्रता-संग्राम में जुड़े। गांधी जी पर उनकी श्रद्धा थी, किन्तु उनके अन्तःकरण में साम्प्रदायिकता व्याप्त थी। एक बार कुछ मुसलमानों ने उनसे पूछा"गांधी जी आपको कैसे लगे?" गांधी जी के गुणों के प्रति अनुराग न होने से वे १. (क) वदनं प्रसारादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भावितरागः प्रमोदः। -सर्वार्थसिद्धि ७/११/३४९ (ख) अपास्ताऽशेषदोषाणां वस्तुतत्वावलोकिनाम्। गुणेषु पक्षपातो यः, स प्रमोदः प्रकीर्तितः॥ -अष्टक १६ (ग) भगवती आराधना वृत्ति १६९६/१५१६/१५ (घ) भवेत् प्रमोदो गुण-पक्षपातः। -शान्तसुधारस १३/३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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