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________________ + मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव * २८१ पुष्पित- फलित बना देती है । जहाँ ऐसी मैत्री होती है, वहाँ वैर - विरोध, द्वेष, घृणा, अहंकार, दुष्टता आदि दुर्गुण टिक नहीं सकते, क्योंकि ऐसी मैत्रीभावना विरोधी, वैरी, क्रूर एवं दुर्जन प्रतीत होने वाले जीवों को भी अपना बना लेती है, उनकी विश्वमैत्री का साधक ऐसे लोगों को अपना आत्मीय मित्र एवं बन्धु बनाकर उनकी क्रूरता को कोमलता में, उनकी दुर्जनता को सज्जनता में बदल देता है। जिसके मन में ऐसी मैत्रीभावना सुदृढ़ हो जाती है, वह क्रूर प्राणियों का संयोग मिलने पर भी क्षुब्ध, भयभीत एवं व्यथित नहीं होता । 'अपूर्व अवसर' में ऐसे विश्वमैत्री साधक की मनःस्थिति का चित्रण इस प्रकार किया गया है " एकाकी विचरतो वली श्मशानमां, वली पर्वतमा वाघ-सिंह-संयोग जो । अडोल आसनने मनमां नहिं क्षोभता, परममित्रनो जाणे पाम्या जोग जो ॥१ विश्वमैत्री के आदर्श तक पहुँचने का क्रम विश्वमैत्री के आदर्श तक पहुँचने के लिए साधक को व्यक्ति (विभूति या परम उपकारी), समाज (समग्र मानव समाज ) और समष्टि (मानवेतर समग्र प्राणीजगत्) के प्रति मैत्री के क्रम से अभ्यास करना आवश्यक हो तो करना चाहिए। परन्तु 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना तो प्रत्येक घटक के साथ मैत्री करते समय दृष्टिगत रखनी चाहिए। तभी वह निःस्वार्थ, निष्काया मैत्री के द्वारा संवर और निर्जरा का महान् लाभ प्राप्त कर सकता है । २ प्रमोदभावना का स्वरूप, व्यापकता और रहस्य मैत्रीभावना का समुचित विकास होने के साथ-साथ साधक में प्रमोदभावना जाग्रत होती है। प्रमोदभावना का फलितार्थ है - गुणीजनों को देखकर मुख पर प्रसन्नता, अन्तरंग में भक्तिभाव तथा हृदय में असीम अनुराग को अभिव्यक्त करना । 'अष्टक' प्रकरण में कहा है - समस्त दोषों से मुक्त वस्तुतत्त्व का यथार्थ अवलोकन करने वाले वीतरागं पुरुषों के गुणों के प्रति पक्षपात प्रमोद कहलाता है। अपने से गुणाधिक व्यक्ति के गुणों पर चिन्तन करके प्रसन्नता का अनुभव करना प्रमोदभावना है। प्रमोदभावना जिसके मन-मस्तिष्क में स्थापित हो जाती है, वह चाहे जिस जाति, धर्म, सम्प्रदाय, पंथ, देश, कुल आदि के गुणाधिक व्यक्तियों को देखकर उनके गुणों के प्रति प्रसन्न होता है, आदरभाव रखता है। उनकी उन्नति, '१ (क) 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. २५, २७ (ख) 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?' (श्रीमद् राजचन्द्र जी ) से, पद्य ११ २. देखें - समतायोग में 'विश्वमैत्री तक पहुँचने के लिए क्रम' का विस्तृत निरूपण, पृ. ३६-३९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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