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________________ * २८० ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ® किसी भी कोने में नहीं होती। किसी को भी दुःख, पीड़ा या कष्ट देने या अपमानित-तिरस्कृत करने की कठोर भावना उसके हृदय में नहीं होती, न ही ईर्ष्या, छल या वैर-विरोध करके किसी को नीचा दिखाने, बदनाम करने या उखाड़ने का विचार या प्लान होता है। जहाँ इस प्रकार सोचा जाता है कि इस संसार में सभी जीव मेरे स्वजन हैं, प्रिय बन्धु हैं, मित्र हैं, कोई भी मेरा शत्रु नहीं है, वहीं मैत्रीभावना विकसित होती है। मैत्रीभावना का साधक यह सोचता है कि तू अपने मन को कलह, शत्रुता, वैर-भाव, द्वेष, क्लेश से कलुषित बनाकर क्यों अपने सुकत (पुण्य) का नाश करता है। तेरे मन में किसी भी प्राणी के प्रति तनिक भी दुर्भाव, घृणा, तिरस्कारवृत्ति न हो, तेरे वचन और व्यवहार द्वारा भी किसी को पीड़ा न हो, ऐसी भावना करना ही मैत्रीभावना है। यदि कोई अपने अशुभ कर्मोदयवश मुझ पर क्रोध, द्वेष या रोष करता है तो मुझे उन विकारों की अधीनता क्यों स्वीकारनी चाहिए? मुझे अपने हिताहित का विचार करके कलह का त्यागकर कलहंसवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए। विश्वमैत्री की सिद्धि ___ इस प्रकार जब मनुष्य की दृष्टि आत्मौपम्य की हो जाती है, तब वह अपने संकीर्ण क्षुद्र स्वार्थ में बन्द नहीं होता, अपने आप में केन्द्रीभूत नहीं होता। अपितु परमार्थदृष्टि से चिन्तन और तदनुरूप व्यवहार करके अपने तुच्छ स्वार्थ को, सुख और संरक्षण को गौण कर दूसरों के हित, सुख और संरक्षण की भावना करता है, दूसरों के प्रति सहदयता और सहानुभूति रखता है, तब एकान्त स्वहित की और एकान्त स्व-रक्षण की वृत्ति सर्वहित और सर्वरक्षण में परिवर्तित हो जाती है, यही विश्वमैत्री की सिद्धि है। विश्वमैत्री साधक की उन्नत मनःस्थिति और उसका प्रभाव इस प्रकार की विश्वमैत्री जिस व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं देश में अवतरित हो जाती है, वहाँ के जीवन को मधुर, सरस, सुखद, शान्तियुक्त एवं १. (क) परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषा मैत्री। -सर्वार्थसिद्धि ७/११/३४९ (ख) मैत्री परेषां हित चिन्तनं यत्। -शान्तसुधारस २ (ग) मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत्कोऽपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते॥ -योगशास्त्र ४/११८ (घ) सुखचिन्ता मता मैत्री। -धर्मसंग्रह (ङ) परहितचिन्ता मैत्री। (च) सर्वे ते प्रियबान्धवा, नहि रिपुरिह कोऽपि। मा कुरु कलि-कलुषं मनो, निजसुकृतविलोपि॥ -शान्तसुधारस मै. भा., श्लो. १०
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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