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ॐ मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव ® २७७ 8
महावीर को जगत् का हितचिन्तक पितामह तथा विश्ववत्सल कहा है। अगर कर्ममुक्ति-साधक भगवान का आज्ञाकारी पौत्र होकर भी अपने मनमन्दिर में आत्मौपम्यभाव से एक जीव को प्रवेश नहीं देता, दिल के दरवाजे उसके लिए बंद कर देता है तो समझ लो, उसमें भगवान का प्रवेश भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि उस व्यक्ति का मन राग-द्वेष, पक्षपात आदि से मलिन है। अतः परमात्मा को मनमन्दिर में प्रतिष्ठित करना है, तो सर्वप्रथम सबके प्रति मैत्री के लिये दिल के द्वार खोल दो।' स्वजनों और मित्रों के लिये वेलकम का बोर्ड लगाने की तरह शत्रुता रखने वाले के लिए भी वेलकम का बोर्ड लगा दो।
सभी प्राणी हमें व हम सर्वप्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें 'यजुर्वेद' में भी सर्वप्राणि-मैत्री की उदारभावना की गई है-“संसार के सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें, मैं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखू। हम सब परस्पर एक-दूसरे को मित्र की दृष्टि से देखें।"
मैत्रीभावना क्यों करें ? · विश्व के सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभावना क्यों करनी चाहिए? इस सम्बन्ध
में 'शान्तसुधारस' में सुन्दर समाधान दिया गया है-“हे आत्मन् ! तू सर्वत्र सबके साथ मैत्री की भावना कर। इस जगत् में मेरा कोई शत्रु नहीं है, ऐसा अनुचिन्तन कर। तेरा यह जीवन कितने दिनों तक स्थायी रहने वाला है ? (फिर इस क्षणभंगुर नाशवान् अल्पकालीन जीवन में) दूसरे के प्रति शत्रुबुद्धि रखकर क्यों खिन्न हो रहा है? इस संसार-सागर में तूने सभी प्राणियों के साथ हजारों बार बन्धुता का अनुभव किया है। इसलिए वे सभी जीव तेरे बन्धु ही हैं। कोई भी तेरा शत्रु नहीं है, ऐसी प्रतीति कर। सभी जीव अनेक बार तुम्हारे पिता, माता, चाचा, भाई, पुत्र, पुत्री, पत्नी, बहन और पुत्रवधू आदि बन चुके हैं। इस दृष्टि से यह जगत् तुम्हारा कुटुम्ब ही है, कोई भी पराया नहीं है।" आशय यह है कि इस संसार में जितने भी जीव हैं, सबके साथ हमारे विविध सम्बन्ध रहे हैं। वे सभी जीव हमारे कुटुम्बी जन बन चुके हैं। फिर उनके साथ शत्रुभाव क्यों? सभी के साथ मैत्रीभाव रखना ही हितावह है। १. (क) 'हंसा ! तू झील मैत्री-सरोवर में' (मुनि अभयशेखरविजय जी म.) से भाव ग्रहण, पृ.
१५-१६ (ख) जगवच्छलो जगप्पियामहो भयवं। ___-नन्दीसूत्र, मंगलाचरण गाथा २. (क) मित्रस्य मां चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा वयं सर्वभूतानि समीक्षामहे।
-यजुर्वेद ३३/१८ (ख) 'शान्तसुधारस' में मैत्रीभावना विषयक, श्लो. ४-६