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________________ * २७८ कर्मविज्ञान : भाग ६ मैत्रीभावना का उद्देश्य ‘भगवती आराधना' में मैत्रीभावना का उद्देश्य बताते हुए कहा गया है- “ जीवों के प्रति मैत्री का चिन्तन मैत्रीभावना है। अतः सभी जीवों के प्रति मित्र की दृष्टि से चिन्तन करना चाहिए कि अनन्तकाल से मेरी आत्मा रेंहट की घटी के समान इस चतुर्गतिमय संसार में परिभ्रमण कर रही है । इस संसार में समस्त प्राणियों ने मेरे पर अनेक बार महान् उपकार किये हैं । अतः अब मुझे भी (मनुष्य-जन्म में) उनका हितचिन्तन करके मैत्री-संवर्द्धन करना चाहिए। इस प्रकार मन में आत्मीयता की भावनापूर्वक उनका हितचिन्तन करना मैत्रीभावना है।" 'दशवैकालिकसूत्र' की हारिभद्रीया वृत्ति में साधुवर्ग के लिए आहार प्रारम्भ करने से पूर्व षट्कायिक जीवों ( समस्त प्राणियों) के प्रति कौटुम्बिकता की भावना करने का विधान किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक बर्नैण्ड रसैल ने अपने द्वारा लिखी हुई पुस्तक 'The world, as I see it' (संसार को जैसे मैं देखता हूँ) में अपना चिन्तन दिया है - " इस संसार में मैं अगणित प्राणियों की सहायता से जी रहा हूँ । न मालूम कितने ज्ञात-अज्ञात का सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है, हो रहा है और होगा । उन प्राणियों के उपकारों का विचार करता हूँ तो कृतज्ञता से मेरा हृदय भर आता है। मैं सोचता हूँ, उन प्राणियों के साथ कैसे मैत्री (प्रेम) करके मैं अपने प्रति किये गए उपकारों का बदला चुकाऊँ।”१ मैत्रीभावना का स्वरूप और उपाय 'ज्ञानार्णव' में मैत्रीभावना के स्वरूप निर्देशपूर्वकं उसका उपाय बताया गया है - संसार में सूक्ष्म और बादर, त्रस और स्थावर प्राणी सुख-दुःखादि अवस्थाओं में जैसे-जैसे रह रहे हों, उनके प्रति तथा अनेक प्रकार की योनियोनियों को प्राप्त जीवों के प्रति समता की अविराधिनी, महत्त्व को प्राप्त समीचीन बुद्धि मैत्रीभावना कहलाती है। मैत्रीभावना का रूप यह है - समस्त जीवं कष्ट, दुःख और आपदाओं से रहित होकर जीएँ तथा दूसरों के प्रति वैर, पाप एवं अपमान आदि मैत्रीबाधक विकारों का त्याग करके सुख प्राप्त करें । २ अनन्तकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमित्वा घटीयंत्रवत् सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः । कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रता - चिन्ता मैत्री | -भगवती आराधना १६९६/१५१६/१२ 9. (क) जीवेषु हित्तचिंता मैत्री | (ख) 'समतायोग' (प्रवक्ता रतन मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ३३ २. क्षुद्रेतर - विकल्पेषु चर - स्थिर-शरीरिषु । सुख-दु:खाद्यवस्थासु संसृतेषु यथायथम् ॥५॥
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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